ये मेघ साहसिक सैलानी!
ये तरल वाष्प से लदे हुए
द्रुत सांसों से लालसा भरे,
ये ढीठ समीरण के झोंके,
कंटकित हुए रोएं तन के
किन अदृश करों से आलोडि़त
स्मृति शेफाली के फूल झरे!
झर-झर झर-झर
अप्रतिहत स्वर
जीवन की गति आनी-जानी!
झर –
नदी कूल के झर नरसल
झर – उमड़ा हुआ नदी का जल
ज्यों क्वारपने की केंचुल में
यौवन की गति उद्दाम प्रबल
झर –
दूर आड़ में झुरमुट की
चातक की करुण कथा बिखरी
चमकी टिटीहरी की गुहार
झाऊ की सांसों में सिहरी,
मिल कर सहसा सहमी ठिठकीं
वे चकित मृगी-सी आंखडि़यां
झर! सहसा दर्शन से झंकृत
इस अल्हड़ मानस की कडि़यां
झर –
अंतरिक्ष की कौली भर
मटियाया-सा भूरा पानी
थिगलियां-भरे-छीजे आंचल-सी
ज्यों-त्यों बिछी धरा धानी,
हम कुंज-कुंज यमुना-तीरे
बढ़ चले अटपटे पैरों से
छिन लता-गुल्म छिन वानीरे
झर-झर झर-झर
द्रुत मंद स्वर
आए दल बल ले अभिमानी
ये मेघ साहसिक सैलानी!
कंपित फरास की ध्वनि सर-सर
कहती थी कौतुक से भर कर
पुरवा-पछवा हरकारों से
कह देगा सब निर्मम हो कर
दो प्राणों का सलज्ज मर्मर –
औत्सुक्य-सजल पर शील-नम्र
इन नभ के प्रहरी तारों से!
वो कह देते तो कह देते
पुलिनों के ओ नटखट फरास!
ओ कह देते तो कह देते
पुरवा पछवा के हरकारों
नभ के कौतुक कंपित तारों
हां कह देते तो कह देते
लहरों के ओ उच्छवसित हास!
पर अब झर-झर
स्मृति शेफाली,
यह युग-सरि का
अप्रतिहत स्वर!
झर-झर स्मृति के पत्ते सूखे
जीवन के अंधड़ में पिटते
मरुथल के रेणुक कण रुखे!
झर-जीवन गाति आनी जानी
उठती गिरती सूनी सांसें
लोचन अंतस प्यासे भूखे
अलमस्त चल दिए छलिया से
ये मेघ साहसिक सैलानी!
– अज्ञेय
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