रथ के मुकाबले पद यात्रा

जब तक हिमाचल कांग्रेस ने प्रदेश भाजपा के प्रचार का उत्तर ढूंढा, तब तक चुनावी काफिलों में शाह-मोदी की पार्टी अपनी फतह का मजमून बता चुकी है। इसमें अंतर अधिक नहीं कि कौन सी पार्टी पैदल चल रही या रथ पर सवार है, लेकिन यह स्पष्ट है कि भाजपा की रणनीति प्रदेश राजनीति के हर पल पर सवार है। यह दीगर है कि जिस शख्स को हिमाचल में घेरने भाजपा उतरी है, वह अपनी पार्टी मुख्यालय के बजाय मुख्यमंत्रित्व की सवारी से चुनावी समर को लांघना चाहता है। इसलिए चुनावी महफिल सजा कर भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सारे कुनबे और खास तौर पर मुख्यमंत्री के कदमों की आहट नहीं सुन सके। यह दीगर है कि दूसरी ओर केंद्र के पदचिन्हों पर चलकर भाजपा के कम से कम पांच राज्यों के मुख्यमंत्री हिमाचल के लिए तत्पर रहे और रथ यात्रा के सारथी बनकर मनोबल ऊंचा कर रहे हैं। भाजपा के पर्स में मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों की खासी सूची है। चुनाव से तीन-चार माह पूर्व ही हिमाचल भाजपा जिस तरह रास्ता तय कर चुकी है, उससे आगे कांग्रेस की पद यात्रा कैसे बढ़ती है, अंदाजा लगाना मुश्किल है। यह भी तब, जब कांग्रेस के भीतर प्रभुत्व की मारा मारी है और लाचारी यह कि सरकार और संगठन की चाल भी भिन्न-भिन्न दिखाई दे रही है। चुनावी संग्राम के विभिन्न खातों में पराजित कांग्रेस को अपने पांव पर मनोबल को खड़ा करने की चुनौती स्पष्ट है। इस दौरान भाजपा कहां खड़ी है, इसका अवलोकन भी करना होगा। बरसात पूर्व अभियान की हर दिशा में भाजपा ने सबसे सशक्त तस्वीर पेश की, तो इसे हम मुकम्मल पार्टी की शख्सियत में देख सकते हैं। कांग्रेस का अपना वजूद किसे पुकारे, यह भी तय नहीं। सवाल यह भी कि हिमाचल अपने आंगन में कितने कांग्रेसी नेताओं को पनाह देगा और पार्टी सम्मेलनों में शिरकत कौन-कौन करेगा। पार्टी के लिए हिमाचल चुनाव एक ऐसा अवसर है, जहां पाने के लिए अगर आलाकमान मशक्कत करे तो युवा संभावनाओं के अक्स में मंच सजेंगे। जहां तक प्रदेश सरकार का सवाल है, वहां भाजपा की मेहनत बताती है कि उसका असली मुकाबला है किससे। अब तक के अभियान में भाजपा ने यह साबित कर दिया है कि पार्टी सीधे मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह से टकरा रही है। तमाम राष्ट्रीय नेताओं और भाजपा के मुख्यमंत्रियों ने, राजनीति के संदर्भों में मुख्यमंत्री के खिलाफ जहर ही उगला है। यह प्रमाणित करता है कि हिमाचल में एक शख्स किस तरह पार्टी से ऊपर है, हालांकि ऐसी परिस्थिति से अकालग्रस्त कांग्रेस को अपना प्रभावशाली अस्तित्व दिखाना कठिन होता जा रहा है। शिमला में पार्टी कार्यालय के हुजूम में मुख्यमंत्री का न होना आखिर साबित क्या करता है और ऐसे माहौल के बीच राजनीतिक सन्नाटा टूटेगा कैसे? बेशक सरकार ने पिछले कुछ समय में अपने विकास की गाथा का कुशल चित्रण किया है और यही वजह है कि भाजपा सरकारी कामकाज के बजाय इसके मुखिया के आचरण को घूर रही है। ऐसे में देखना यह होगा कि कांग्रेस के बीच मिशन रिपीट की अवधारणा कहां तक स्पष्ट है या पार्टी का मनोबल इसकी पराकाष्ठा को अनूदित कर पाएगा। अब जबकि वक्त सरकार की राजनीतिक कीमत लगाएगा, तो मुख्यमंत्री को भी पार्टी के कदमों के साथ ही मंजिल नापनी पड़ेगी। यह विडंबना है कि हिमाचल में मिशन रिपीट की अभिलाषा तो दो समानांतर कक्षों में हो रही है, लेकिन एक साथ चलने को कोई पक्ष तैयार नहीं। ऐसे में पद यात्रा के नाम पर कुनबे को काम पर लगाना अकेले कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष के वश में नहीं। इसका यह भी अर्थ है कि जिस तरह पंजाब में कैप्टन अमरिंदर के सहारे कांग्रेस को चलना पड़ा, उसी प्रकार हिमाचली हालात में पार्टी को मुख्यमंत्री की गुलामी न करनी पड़े। यही अंतर रथ और पद यात्रा में रहेगा। वहां रथ को खींचने वाले मशगूल हैं, लेकिन इधर कांग्रेस में सभी मगरूर हैं। चुनावी प्रचार की भाजपाई फांस के आगे कांग्रेस के अपने हलक की स्थिति अगर इसी प्रकार रही, तो प्रचार का अगला मानसून भी भाजपा के बादलों की ही गर्जना करेगा। यह दीगर है कि भाजपा ने अब तक की यात्रा में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की आलोचना के अलावा केवल केंद्र की उपलब्धियों का ब्यौरा ही दिया, जबकि जनता अपने लिए इस रथ के मार्फत भविष्य का मॉडल देखना चाहती है। आज तक मुख्यमंत्री के नैन-नक्श बताने वाली भाजपा की ताजा खामोशी का अर्थ इसके कार्यकर्ताओं को भी राजनीतिक यात्रा की मंजिल नहीं बता रहा। यह अलग बात है कि इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिमाचल की ब्रांडिंग करके परिदृश्य में राजनीतिक इंद्र धनुष बिखेर दिया है। ट्रंप को तोहफों का पैकेज सौंपने के बाद, प्रधानमंत्री ने इजरायल के सामने भारतीय मस्तक पर पुनः हिमाचली टोपी को सम्मान दिया, तो वहां तक पहुंची यात्रा में हिमाचल भाजपा का रंग स्पष्ट है। यानी मैरून टोपी तो अंतरराष्ट्रीय हो गई, लेकिन कांग्रेस की टोपी को ग्रीन सिग्नल नहीं मिल रहा है, तो यह दोष पार्टी के परिवार का है।

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