संघी राष्ट्रपति कबूल हैं !

देश के 15वें राष्ट्रपति के लिए मतदान भी हो चुका है। अब हम 20 जुलाई का इंतजार करेंगे कि सत्तारूढ़ पक्ष के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद कितने वोट से जीतेंगे। चूंकि इस चुनाव में सांसद और विधायक ही मतदान करते हैं, लिहाजा जीत-हार लगभग तय होती है। विभिन्न दलों और उनके प्रतिनिधियों के वोट मूल्य के आधार पर कोविंद को 6,63,031 और विपक्ष की साझा उम्मीदवार मीरा कुमार को 3,53,782 वोट मिलने चाहिएं, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी व्हिप जारी नहीं की जा सकती, लिहाजा क्रॉस वोटिंग के खूब आसार थे। मसलन त्रिपुरा में तृणमूल कांग्रेस के सात विधायकों ने खुलेआम कोविंद को वोट देने का ऐलान किया था। समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव का धड़ा मीरा के पक्ष में रहा और मुलायम-शिवपाल धड़े के सांसदों-विधायकों ने कोविंद का समर्थन किया। दिल्ली की आम आदमी पार्टी में असंतोष और बगावत व्यापक स्तर पर है, जाहिर है कि उसके विधायकों के वोट भी बंटे होंगे। इस तरह चुनाव परिणाम के आंकड़े बदल भी सकते हैं। राष्ट्रपति चुनाव के इतिहास में वाकई एक बार अंतरात्मा के आधार पर मतदान कराया गया था। नतीजतन कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी हार गए थे और निर्दलीय उम्मीदवार वीवी गिरि राष्ट्रपति चुने गए थे। यह भी तब संभव हुआ, जब खेल और बिसात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ही बिछाई थी। इस बार ऐसी कोई संभावना नहीं है कि मोदी को कोई खेल करना पड़े, क्योंकि कोविंद उन्हीं की पसंद हैं। लिहाजा 25 जुलाई भी एक ऐतिहासिक दिन होगा, जब पहली बार आरएसएस-भाजपा का अपना राष्ट्रपति शपथ ग्रहण के बाद कार्यभार संभालेगा। कोविंद दलित हैं। उनसे पहले केआर नारायणन भी दलित राष्ट्रपति थे, लेकिन कोविंद हिंदी पट्टी और एक अलग वर्ग के दलित होंगे, जो राष्ट्रपति बनेंगे। दरअसल दलित वोट बैंक पर फिर मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की निगाहें 2014 के लोकसभा चुनाव से ही रही हैं। 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में भी दलितों और पिछड़ा वर्ग ने भाजपा के पक्ष में खूब वोट  दिए, नतीजतन 325 ऐतिहासिक सीटों के साथ भाजपा की योगी सरकार बनी। अब वे देश के राष्ट्रपति पद पर एक दलित को आसीन करा संघ-भाजपा दलितोन्मुख राजनीतिक अभियान चलाएंगे। बेशक वह राजनीति के अलावा कुछ भी नहीं है। बुनियादी सवाल यह है कि राजनीति की एक खास जमात जिस तरह संघ के प्रति नफरत के भाव रखती है और उसे सांप्रदायिक, विभाजक और संकीर्ण नजरिए का संगठन करार देकर अछूत साबित करने की कोशिशें करती रही है, क्या आरएसएस की शाखा से निकले राष्ट्रपति को, बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वीकार कर सकेगी? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तो अब भी राष्ट्रपति चुनाव को सांप्रदायिक बनाम धर्मनिरपेक्ष घोषित किया है। उनका मानना था कि यह लड़ाई संकीर्ण, विभाजनकारी और सांप्रदायिक सोच के खिलाफ थी। देश का संविधान और कानून खतरे में हैं। सोनिया के ऐसे बयान के बावजूद कांग्रेस गैर-भाजपा दलों को अपने साथ नहीं जोड़ पाई। बहरहाल, कोविंद की छवि कभी भी कट्टर हिंदूवादी नेता की नहीं रही। बेशक वह शाखाओं में जाते रहे, लेकिन सामाजिक और मानवीय मूल्यों पर अडिग रहे। हालांकि राष्ट्रपति किसी जाति, धर्म, पंथ, संप्रदाय और राजनीतिक दल का नहीं होता, लेकिन राष्ट्रपति के तौर पर कोविंद ने मोदी सरकार के किसी विवादास्पद एजेंडे को स्वीकृति दी, तो भाजपा विरोधी विपक्ष चिल्ल पौं करेगा। विपक्षी खेमा अकसर आरोप लगाता रहा है कि संघ-भाजपा देश को तोड़ने और विभाजित करने में लगे हैं, वे महात्मा गांधी के हत्यारे हैं। इसी तरह समान नागरिक संहिता, राममंदिर आदि मुद्दों पर राष्ट्रपति ने मोदी सरकार के प्रस्तावों को स्वीकृति दी, तो विपक्ष क्या करेगा? क्या संघी राष्ट्रपति के खिलाफ अभियान चलाएगा? बेशक अब विपक्ष संघ और भाजपा को गाली देने से पहले चार बार सोचेगा। राष्ट्रपति के तौर पर कोविंद अपने भाषण के जरिए विपक्ष के अनर्गल  आरोपों को खारिज कर सकते हैं और ऐसी राजनीति के प्रति आगाह भी कर सकते हैं। देश में यह पहला अवसर है कि जब राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों शीर्ष संवैधानिक पदों पर संघ-भाजपा के ही प्रतिनिधि आसीन होंगे। क्या राजनीतिक व्यवस्था बदलेगी? क्या आजादी से लटके मुद्दों का समाधान तय होगा? क्या कश्मीर पर भी कोई विशेष निर्णय सामने आएगा? नए राष्ट्रपति के दौर में ये सवाल गूंजते रहेंगे।

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