सेहत से खिलवाड़

(डा. शिल्पा जैन सुराणा, वरंगल, तेलंगाना )

रेलवे के खाने की गुणवत्ता पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह खाना निर्धारित मापदंडों के अनुकूल नहीं होता। दूसरी तरफ खाने का मूल्य भी निर्धारित मूल्य से ज्यादा होता है। इस प्रकार से यात्रियों की मजबूरी का फायदा उठाया जाता रहा है। इतना ही नहीं, शिकायत के लिए दिए गए नंबर पर कोई जवाब नहीं मिलता और कई जगह तो कर्मचारी सांठ-गांठ करके सूचना ही गायब कर देते हैं। खाने में कंकरों का होना आम बात है। जले हुए तेल को तब तक  इस्तेमाल किया जाता है, जब तक वह काला न हो जाए। शाकाहारी यात्रियों के साथ तो और भी धोखाधड़ी का खेल चलता है। जिस तेल में भजिए तले जाते हैं, उसी में नॉन वेज भी तला जाता है, जबकि स्पष्ट निर्देश होना चाहिए कि ऐसा न हो। सरकार योजनाएं अच्छी बनाती है, मगर उसका ढंग से क्रियान्वयन न हो, तो क्या फायदा। भारतीय रेलवे दुनिया की दूसरी रेलवे के मुकाबले सस्ती है, मगर खाने के मामले में उसका स्तर बहुत नीचा है। हालात ये हो गए हैं कि कई बार जब अखबारों में रेलवे के खाने में मरी हुई छिपकली, कॉकरोच या गुटके का पाउच आने की खबर पढ़ते हैं, तो कुछ नया नहीं लगता। उस पर भी कर्मचारियों द्वारा उगाही किया जाना रेलवे के लिए शर्मनाक बात है। सरकार व रेलवे को चाहिए कि वह सिर्फ दाम कम करने के बारे में न सोचें, बल्कि खाने की गुणवत्ता में सुधार के बारे में ज्यादा ध्यान दें। शिकायतों का तत्काल निवारण हो तथा मिलावट करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए। भारतीय रेल विलासिता नहीं, बल्कि हर वर्ग की जरूरत है। उम्मीद है कि निकट भविष्य में संबंधित पक्षों द्वारा इस पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

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