परिदृश्य की सियासी मुलाकात

बाबाओं की दुनिया के दाग राजनीति की विवशताओं का भूकंप ला सकते हैं, इसका कातिल अंदाज हिमाचल से सटे हरियाणा में देखने को मिला। खट्टर प्रशासन की बदौलत भाजपा का मॉडल चोटिल हुआ, तो इसके संदर्भ हिमाचल में भी पढ़े जाएंगे। हिमाचल में आक्रामकता से प्रचार में जुटी भाजपा के सामने अचानक पंचकूला में फेल हुए शासन की दीवारें खड़ी हो गईं। व्यवस्था की चीर-फाड़ में हिमाचल भाजपा की दूरबीन पर खट्टर के दीदार बढ़ गए, तो चर्चा का पैंतरा अब कांग्रेस के हाथ में होगा। इसमें दो राय नहीं कि शाह की भाजपा अपने सामने किसी को भी घेर सकती है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने इसके नायकत्व पर चोट पहुंचाई है। हरियाणा में सरकार की विफलता केवल मनोहर लाल खट्टर की छवि का प्रश्न नहीं, बल्कि भाजपा के राष्ट्रीय मॉडल का बिगड़ता संतुलन और स्वरूप भी माना जाएगा। ऐसी परिस्थितियों का कानूनन असर भले ही हिमाचल में कम हुआ हो, लेकिन भाजपा सरकारों में से एक बुनियाद भी अगर हिली, तो सियासी तुलना तो होगी। हरियाणा और हिमाचल के बीच तुलना के कई पहलू हैं, लेकिन राजनीतिक तौर पर पंचकूला विषाद अब बहस की ध्वनि और धारा बदलेगा। इसका अर्थ यह भी कि हिमाचल की सियासी बिरादरी का तिलक व तापमान इस कद्र कभी भी अपमानित नहीं हुआ। यहां समाज  का उपयोग राजनीतिक साधना के लिए तो हुआ, लेकिन समाज को इस तरह कभी साधा नहीं गया। पड़ोसी राज्यों की हवाएं यहां के माहौल पर असर रखती हैं तो प्रतीकात्मक या प्रतिक्रियात्मक खतरे बढ़ जाते हैं। अशांत रहे पड़ोसी राज्यों के कारण हिमाचली समाज पर हुए परिवर्तन के कारण सियासत का चेहरा भी बदला है। यहां भी अशांत राजनीति के जरिए समाज को भेड़-बकरियों की तरह एकत्रित करने की शुरुआत से इनकार नहीं किया जा सकता है। हम यह नहीं मान सकते कि अशांत पंजाब, जम्मू-कश्मीर या अब हरियाणा की घटनाओं से हिमाचल अविचलित नहीं होगा। राजनीति का विकराल होता चेहरा समाज के स्वार्थ व दबाव को जिस तरह परिभाषित करता है, उससे अप्रभावित रहने के लिए हिमाचल में संभावना कम हो रही है, फिर भी यह राज्य अपनी संवेदना के मर्म को जानता है। इसलिए कोटखाई प्रकरण पर जो शर्मिंदगी हुई, उसके कारण हिमाचल सरकार को अपने अक्स से आबरू तक की परीक्षा देनी पड़ रही है। पूरा विधानसभा सत्र मात्र एक प्रकरण की भेंट चढ़ सकता है, तो सामाजिक पीड़ा का बोध राजनीति को करना पड़ता है। देखने की आवश्यकता यह है कि कहीं राजनीति जहां से शुरू हो रही है, वहीं से समाज रेखांकित हो रहा है या समाज की सीमा के बाहर से सियासत दौड़ रही है। जो भी हो हिमाचली परिदृश्य की राजनीतिक मुलाकात इतनी घिनौनी नहीं कि बाबाओं के मोहजाल में पूरा राज्य जलने लगे। यहां प्रशासनिक व राजनीतिक संवेदना समाज के विविध पहलुओं की अनदेखी नहीं कर सकती, लेकिन चुनौतियों का एक संसार  आयात हो रहा है। बाबाओं की संगतें अब हिमाचल में भी खड़ी हो रही हैं। बाकायदा आश्रमों की तादाद बढ़ रही है और धारा-118 के आर-पार कई समुदायों की जमीन का फैलाव आश्चर्यचकित करता है। इनके पीछे कौन है या साधुओं के  कुंभ में कितने हिमाचली नेता नहा रहे हैं, इस पर नजर रखने की आवश्यकता है। जाहिर तौर पर सत्ता के जरिए मंदिर प्रशासन के आर्थिक दुरुपयोग की परंपराओं से हिमाचल अछूता नहीं, लेकिन भीड़ का राजनीतिकरण नहीं हुआ है। ऐसे में भाजपा के चुनावी अभियान पर खट्टर सरकार ने चाहे-अनचाहे अवरोध पैदा किए हैं। भीड़ के उपद्रव की पनाह एक ऐसे राज्य में चिन्हित हुई, जिसने कांग्रेस शासन के कंकाल को दफन किया। अब लगातार  हो रही हिंसा को साक्षी महाराज जैसे  सांसदों के बयान में देखें तो धर्म की व्याख्या, लोकतंत्र के अनेक स्तंभों के लिए खतरा पैदा कर रही है। हरियाणा में मीडिया पर हुए हमले में निकम्मापन अगर सरकार की सुर्खियां बदल रहा है, तो हिमाचल में बिरादरी को भाजपा का नया आश्वासन चाहिए। पंचकूला प्रकरण से भाजपा की इबादत और इबारत में भेद होगा, इसलिए हिमाचल में अपनी पारी का इंतजार कर रही पार्टी को महज आक्रामकता से हटकर विजन की लिखावट में सौहार्द, संस्कार और सरोकार का बेहतर राज्यस्तरीय चित्रण करना होगा। हिमाचल का अपना एक अलग सियासी वजूद रहा है, इससे  हटकर अति राजनीतिक होती भाजपा को संभल कर चलने की हिदायत पड़ोसी से आ रही है।

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