पहाड़ में अवैज्ञानिक विकास के परिणाम

(सुरेंद्र शर्मा (ई-मेल के मार्फत))

पहाड़ जिन पर हमें नाज है, वही आज हमसे बेरुखी क्यों दिखा रहे हैं? कहीं पहाड़ अपने सीने के दर्द से हमें रू-ब-रू तो नहीं करवा रहे? बरसात के मौसम में हर साल भू-स्खलन आफत बन कर हमारे सामने खड़े होकर क्या चेतावनी दे रहा है। इन प्रश्नों को हमने कभी गंभीरता से नहीं लिया। हमने विकास की आंधी में प्रकृति की अनदेखी की है। इसी भयंकर भूल के परिणाम हमारे सामने आए दिन आ रहे हैं। विकास प्रक्रिया समय की मांग है, परंतु ऐसा विकास किस काम का जो विनाश का कारण बन जाए। पिछले पांच दशकों से पंडोह से औट, मंडी से जोगिंद्रनगर, शिमला-कालका-परवाणू, सुंदरनगर से जड़ोल, छड़ोल से स्वारघाट राष्ट्रीय उच्च मार्गों व दर्जनों राज्य मार्गों पर पहाड़ों की हलचल को हम मूकदर्शक बन कर देख रहे हैं। अभी तो दो या तीन राष्ट्रीय उच्च मार्गों ने हमें आईना दिखा दिया है। इसके अलावा प्रस्तावित पांच दर्जन राष्ट्रीय उच्च मार्गों, सुपर हाई-वे के दंश तो अभी हमने भविष्य में झेलने हैं। विकास के नाम पर हमने सड़कों के निर्माण, पनविद्युत परियोजनाओं हेतु सुरंगें बना डालीं, बड़ी-बड़ी झीलें पहाड़ के भीतर व बाहर बना डालीं, जिसके चलते पहाड़ का सीना छलनी हो कर रह गया है। हमने विकास की राह प्रकृति के आंचल की छांव में बनाई होती, तो शायद मौत का यह तांडव हमें देखने को नहीं मिलता। भू-स्खलन से सबक लेने के बजाय हम सरकार द्वारा आर्थिक सहायता लेकर संतोष कर लेते हैं। दरकते पहाड़ों के दर्द व प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए सरकार व सरकारी तंत्र को भी पूरी ईमानदारी व दृढ़ इच्छाशक्ति से प्रयास करने होंगे, अन्यथा पहाड़ों के गर्भ में हो रही हलचल के परिणाम मानव जाति के लिए असहनीय होंगे।

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