पूर्णता के परम प्रतीक हैं श्रीकृष्ण

जो गाय कामधेनु नहीं हो पाई, वह असल में ठीक अर्थों में गाय ही नहीं हो पाई है, वह अपने स्वभाव से च्युत हो गई है। श्री कृष्ण सिर्फ इतना ही कहते हैं कि मैं प्रत्येक स्वभाव की सिद्धि हूं। जो-जो हो सकता है चरम शिखर पर, वह मैं हूं…

श्री कृष्ण अपने को सभी में श्रेष्ठ घोषित करते हैं, ऋतुओं में वसंत कहते हैं, हाथियों में ऐरावत कहते हैं, गायों में कामधेनु कहते हैं।  दूसरी मजे की बात यह भी है कि गाय और घोड़ा जैसे निम्नतम प्राणियों में भी वे अपनी तुलना खोजते हैं। ये दो बातें एकसाथ हैं। इधर वह हर जाति में अपने को श्रेष्ठ घोषित करते हैं, लेकिन इसकी जरा भी फिक्र नहीं करते कि जाति किसकी है। आखिर ऐरावत भी होंगे तो हाथियों में ही होंगे न, और कामधेनु होंगे तो गायों में ही होंगे न, और वसंत होंगे तो ऋतुओं में ही होंगे न! ये दो बातें एकसाथ हैं। निम्नतम में भी जो श्रेष्ठतम है, उसकी वे घोषणा करते हैं। कारण हैं। इस श्रेष्ठतम की घोषणा क्यों की जा रही है? ऊपर से देखने पर लगेगा कि अहंकार की बात है क्योंकि हमें सिवाय अहंकार के कुछ और लगता ही नहीं। भीतर से देखने पर पता चलेगा कि जब प्रत्येक जाति में, प्रत्येक वर्ग में श्रेष्ठतम की बात कही जा रही है, तो उसका कुल मतलब ही इतना है कि जब वह कहते हैं हाथियों में ऐरावत हैं, तो वह यह कहते हैं कि जो हाथी ऐरावत नहीं हो पाए, वे अपने स्वभाव से च्युत रह गए हैं। ऐसे तो हर हाथी ऐरावत होने को पैदा हुआ है। जो ऋतु वसंत नहीं हो पाई, वह ऋतु होने से च्युत हो गई, उसके स्वभाव से च्युत हो गई। ऐसे तो हर ऋतु वसंत होने को पैदा हुई है। जो गाय कामधेनु नहीं हो पाई, वह असल में ठीक अर्थों में गाय ही नहीं हो पाई है, वह अपने स्वभाव से च्युत हो गई है। श्री कृष्ण सिर्फ इतना ही कहते हैं कि मैं प्रत्येक स्वभाव की सिद्धि हूं। जो-जो हो सकता है चरम शिखर पर, वह मैं हूं। इसका मतलब आप समझे? इसका मतलब यह हुआ कि जो हाथी ऐरावत नहीं है, वह कृष्ण नहीं है, ऐसा नहीं, वह भी कृष्ण है, लेकिन पिछड़ा हुआ कृष्ण है; वह ऐरावत नहीं हो पाया, जो कि हो सकता है, जो कि वह ‘पोटेंशियली’ है। कृष्ण यह कह रहे हैं कि सबके भीतर जो ‘पोटेंशियली’ है, वह मैं हूं। इसको अगर पूरे सार में हम रखें, तो इसका मतलब हुआ कि सबके भीतर जो बीजरूप संभावना है, जो अंतिम उत्कर्ष की संभावना है, जो अंतिम विकास का शिखर है, वह मैं हूं। और जो इससे जरा भी पीछे छूट जाता है, वह अपने स्वभाव के शिखर से च्युत हो जाता है। वह अपने को पाने से वंचित रह गया है। इसमें कहीं कोई, कहीं भूलकर भी कोई अहंकार की घोषणा नहीं है। इसका सीधा और साफ मतलब इतना ही है कि तुम जब तक हाथियों में ऐरावत न हो जाओ, तब तक तुम मुझे न पा सकोगे। तुम जब तक ऋतुओं में वसंत न हो जाओ, तब तक तुम मुझे न पा सकोगे। तुम अपने पूरे खिलने में, अपनी पूरी ‘फ्लावरिंग’ में ही मुझे पाते हो। वह अर्जुन को यही समझा रहे हैं, वह उसको यही कह रहे हैं कि क्षत्रियों में तू पूरा श्रेष्ठ हो जा तो तू कृष्ण हो जाएगा। अगर कृष्ण कभी हजार-दो हजार साल बाद आते, तो वह जरूर कहते कि क्षत्रियों में मैं अर्जुन हूं। जब कृष्ण अपने होने की यह घोषणा कर रहे हैं, तो यह श्रेष्ठता का दावा नहीं है। क्योंकि श्रेष्ठता का दावा करने के लिए घोड़ों और हाथियों में जाना पड़ेगा? गायों-बैलों में जाना पड़ेगा? श्रेष्ठता का दावा तो सीधा ही हो सकता है, पर वह सीधा नहीं कर रहे हैं। असल में वह श्रेष्ठता का दावा ही नहीं कर रहे हैं। वह एक जागतिक विकास की बात कर रहे हैं कि जब तुम अपने श्रेष्ठतम रूप में प्रकट होते हो, तब तुम प्रभु हो जाते हो। इसे अन्य उदाहरण से भी समझा जा सकता है। शब्द है हमारे पास, ईश्वर। ईश्वर शब्द बनता है ऐश्वर्य से ही। जब तुम अपने पूरे ऐश्वर्य में प्रकट होते हो, तो ईश्वर हो जाते हो। ईश्वर तो ऐश्वर्य का ही रूप है। लेकिन हमने कभी सोचा नहीं। ईश्वर का मतलब ही यह है कि गायों में कामधेनु और हाथियों में ऐरावत, और ऋतुओं में वसंत। जब भी कोई अपने पूरे ऐश्वर्य में प्रकट होता है तो वह ईश्वर हो जाता है। ईश्वर का मतलब ही यह है कि जिसकी ‘पोटेंशियलिटी’ और ‘एक्चुअलिटी’ में फर्क नहीं है। जिसकी वास्तविकता में और जिसकी संभावना में कोई फर्क नहीं है। जिसके जीवन में संभावना और वास्तविकता एक ही हो गई है। जो संभावना थी वह पूरी की पूरी वास्तविकता बन गई है, वह ईश्वर है। जिसकी संभावना और वास्तविकता में अंतर है, ‘डिस्टेंस’ है, वह अभी ईश्वर की तरफ यात्रा कर रहा है।

– ओशो कृत ‘कृष्ण स्मृति’ से साभार

ऐसे मनाइए जन्माष्टमी

भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी की सोलह कलाओं से युक्त पूर्णावतार को भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।  मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में वह अवतरित हुए थे। जन्माष्टमी को व्रत रखने और इस दिन भगवान श्रीकृष्ण को पूजन करने से भक्तों की सभी तरह की कामनाएं पूरी होती हैं।  कृष्ण जन्माष्टमी को सर्वप्रथम प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएं। तत्पश्चात सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्पति, भूमि, आकाश आदि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके बैठें। इसके बाद जल, फल, कुश और गंध लेकर संकल्प करें-

ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥ 

मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए ‘सूतिकागृह’ नियत करें। तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। फिर इस मंत्र से पुष्पांजलि अर्पित करें-

प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः।

वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तु यं नमो नमः।

सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तुते। 

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मध्यरात्रि को हुआ था , इसलिए भक्त रात्रि जागरण करते हैं, रात्रि में जन्मोत्सव की खुशियां मनाते हैं और अंत में प्रसाद का वितरण करते हैं।

श्रीकृष्ण स्तुति

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी

हे नाथ! नारायण वासुदेव।

पितु मात स्वामी सखा हमारे

हे नाथ! नारायण वासुदेव।    बुध शुद्ध तिथि अष्टमी प्यारी।

भाद्र मास वर्षा अति भारी।।

बंदी गृह में अर्द्धनिशा में प्रगट हुए सर्वानंदकारी,

सुर नर मुनि सब हुए सुखारे।

पितु मात स्वामी सखा हमारे हे नाथ! नारायण वासुदेव।   श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी

हे नाथ! नारायण वासुदेव।

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