मजहबी झूला झूल गए

सिंहासन जो किया सुशोभित, पद की गरिमा भूले,

कहां गई शुचिता, मजहब के झूले में वो झूले।

मुर्ग-मुसल्लम रोज चरा है, कहते हो बेस्वाद,

नॉन वेज बिरयानी को कहते, साधारण सी भात बना।

सोने की थाली में चरते-चरते, तुमने छेद किया,

बने अल्पसंख्यक मुस्लिम, जन्नत में क्यों भेद किया।

पद के मद ने पहले घेरा, अब मजहब ने घेर लिया,

कश्मीरी पंडित को भूले, अपना मुंह क्यों फेर लिया।

इस पद पर मुर्गा ही तोड़ा, काम किया क्या बतलाओ,

कश्मीरी पंडित को फिर, वहां बसा कर दिखलाओ।

क्यों भूले कोई कलाम को, झुककर राष्ट्र सलाम करे,

तुमको क्या बोले जनता, क्या कहकर अपमान करे?

अगर फिर से पद पा जाते, पूर्ण सुरक्षित हो जाते,

कश्मीर में जाकर, क्या तुम खूब तिरंगा लहराते।

कुर्सी से अब तक हटे भी न थे, दिखा दिए सब रंग,

देश सौहार्द में जी रहा था, व्यर्थ डाल दी भंग।

नेता थे तुम राष्ट्र के, फिर क्यों मुस्लिम बोल?

विदाई में जो बोलना था, पहले लेते कुछ तौल।

शर्म-हया कुछ बचा लो, शायद कभी काम आए,

खुद जाओ इराक, सीरिया, शायद तुम्हें नजर आए।

डा. सत्येंद्र शर्मा, चिंबलहार, पालमपुर

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