संपूर्ण सृष्टि अनंत है

श्रीश्री रवि शंकर

संसार जो हम देखते हैं इंद्रियों का वह जगत समिष्टि का केवल एक छोटा सा अंशमात्र है। पूर्णता एक शून्य की तरह है, विपुल और संपूर्ण । शून्य के ज्ञान के बिना सभ्यता फलफूल नहीं सकती। संसार एक परिपूर्णता से दूसरी परिपूर्णता की ओर अग्रसर है। पूर्णता मन में ठहराव लाती है ताकि तुम चिंतन कर सको और मन की यही अंतर्यात्रा ही अध्यात्म है। ईश या दैवी सत्ता संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है एवं जिसे ऊर्जा के रूप में संबोधित किया गया है व्यक्ति के रूप में नहीं। उसी एक चेतना में सब कुछ व्याप्त है, जागो और देखो कि संपूर्ण सृष्टि अनंत है तथा तुम्हारा अंतर इस सृष्टि की भांति परिपूर्ण है। देखो कि यह सृष्टि तुम्हारी आत्मा में व्याप्त है, कुछ भी निर्जीव नहीं है। अपने शरीर को सम्मान दो और त्याग करते हुए इस जगत का रसास्वादन करो। संसार को पकड़ कर रखने की ज्वर ग्रस्तता दुख लेकर आती है तथा त्याग तुम्हारी आत्मा का संरक्षण करता है। यद्यपि सुखद और दुखद घटनाएं अलग-अलग प्रतीत हो सकती हैं परंतु वे एक ही दव्य सत्ता से गठित हैं। दुखद घटनाएं तुम्हें मजबूत बनाती हैं जबकि सुखद घटनाएं तुम्हें विकसित करती हैं। त्याग का अर्थ है पूरी तरह से वर्तमान क्षण में मौजूद होना। यह समझो कि यह सृष्टि प्रेम और प्रचुरता से परिव्याप्त है तथा तुम्हारी सभी आवश्यकताओं की देखरेख की जाएगी। दुख में त्याग करने का बल तथा आनंद में सेवा करने की तत्परता ऐसी दो चीजें हैं, जिसे जीवन में हमें सीखना है। अपना कर्म करते हुए 100 वर्ष जीने की अभिलाषा रखो। जीवन यहां अपने कर्मों से मुक्त होने के लिए है, जोकि इस शरीर में रहकर ही तुम कर सकते हो तथा वह ज्ञान जो तुम्हें मिल रहा है दूसरों में बांटो। अपना कर्म शत-प्रतिशत करो, परंतु उसके बारे में ज्वरग्रस्त मत हो जाओ। जो कुछ भी तुमने नहीं किया या जिसके लिए भी तुमने प्रेम को अनुभव नहीं किया, वह करने के लिए तुम वापस आओगे। अपना कर्म करते रहो और उसका त्याग करते रहो। हमारी बूझने की सीमित क्षमता के कारण इस संपूर्ण सृष्टि को एवं उसकी महानता को वस्तुतः हम जान नही सकते। मस्तिष्क एक फ्रीकवेन्सी चैनल पर कार्य करता है, हमारी इंद्रियों के पास सीमित क्षमता है, किंतु दैवी सत्ता की ही तरह सृष्टि असीम है। इस सीमित समय में जिसे हम जीवन कहते हैं, हम अपना कर्म करते रहते हैं। कर्म दो तरह के होते हैं: एक वह जो आत्मा का उत्थान करे और दूसरा है हमारे कर्त्तव्यों का पालन। जिसने जीवन में स्वयं को नहीं समझा या खुद पर ध्यान नहीं दिया वह अंधकार में घिरा हुआ है। ऐसे लोग बिना केंद्रित हुए जीते हैं, वह संसार के अंधकार में जीते हैं और संसार छोड़ते हुए वह अंधेरे में ही होंगे। जब तुम ध्यान में यह शरीर छोड़ते हो तब तुम एक उच्चतर स्तर को प्राप्त करते हो। चौथे एवं पांचवें पद में आत्मबोध की धारणा को प्रस्तुत किया गया है। तुम कैसे जानोगे कि तुम्हें आत्मानुभूति हुई है? आत्मा अचल है, यह सृष्टि का आधार है एवं सब कुछ इसमें निहित है। वह शून्य है, प्रकाश की गति से अधिक तीव्रतर है, मन से अधिक गतिशील है, इंद्रयों के द्वारा तुम आत्मा को कभी भी नहीं समझ सकोगे। द्रष्टा, वह जो देखता है, अनुभव करता है आत्मा है। इंद्रियों के माध्यम से इसका बोध संभव नहीं तथापि सृष्टि में प्रत्येक कर्म चेतना के माध्यम से होता है। एक बीज का अंकुरण होता है क्योंकि उस बीज में चेतना है। संपूर्ण सृष्टि इस प्राण अथवा जीवन शक्ति से परिपूर्ण है एवं तुम तत्त्व नहीं वरन उस तत्त्व के धारक हो।

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