हैरान करता है कोणार्क मंदिर

कोणार्क मंदिर अपनी विशालता, निर्माण-सौष्ठव तथा वास्तु और मूर्ति कला के समन्वय के लिए अद्वितीय है और उड़ीसा की वास्तु और मूर्ति कलाओं की चरम सीमा प्रदर्शित करता है। एक शब्द में यह भारतीय स्थापत्य कला की महानतम विभूतियों में से एक है। मंदिर का मुख पूर्व में उदीयमान सूर्य की ओर है व इसके तीन प्रधान अंग हैं…

कोणार्क उड़ीसा के पुरी जिले में पुरी के जगन्नाथ मंदिर से 21 मील उत्तर-पूर्व समुद्रतट पर चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित है। यहां का सूर्य मंदिर बहुत प्रसिद्ध है जो भारत के प्रमुख आध्यात्मिक आश्चर्यों में शामिल है। इस मंदिर की कल्पना सूर्य के रथ के रूप में की गई है। रथ में बारह जोड़े विशाल पहिए लगे हैं और इसे सात शक्तिशाली घोड़े तेजी से खींच रहे हैं। जितनी सुंदर कल्पना है, रचना भी उतनी ही भव्य है। मंदिर अपनी विशालता, निर्माण-सौष्ठव तथा वास्तु और मूर्तिकला के समन्वय के लिए अद्वितीय है और उड़ीसा की वास्तु और मूर्ति कलाओं की चरम सीमा प्रदर्शित करता है। एक शब्द में यह भारतीय स्थापत्य कला की महानतम विभूतियों में से एक है। यह विशाल मंदिर मूलतः चौकोर प्रकार से घिरा था जिसमें तीन ओर ऊंचे प्रवेशद्वार थे। मंदिर का मुख पूर्व में उदीयमान सूर्य की ओर है और इसके तीन प्रधान अंग – देउल (गर्भगृह), जगमोहन (मंडप) और नाटमंडप – एक ही अक्ष पर हैं। सबसे पहले दर्शक नाटमंडप में प्रवेश करता है। यह नाना अलंकरणों और मूर्तियों से विभूषित ऊंची जगती पर अधिष्ठित है जिसकी चारों दिशाओं में सोपान बने हैं। पूर्व दिशा में सोपानमार्ग के दोनों ओर गजशार्दूलों की भयावह और शक्तिशाली मूर्तियां बनी हैं। नाटमंडप का शिखर नष्ट हो गया है, पर वह निःसंदेह जगमोहन शिखर के आकार का रहा होगा। उड़ीसा के अन्य विकसित मंदिरों में नाटमंडप और भोगमंदिर भी एक ही अक्ष में बनते थे जिससे इमारत लंबी हो जाती थी। कोणार्क में नाटमंडप समानाक्ष होकर भी पृथक है और भोगमंदिर अक्ष के दक्षिण-पूर्व में है। इससे वास्तुविन्यास में अधिक संतुलन आ गया है। नाटमंडप से उतरकर दर्शक जगमोहन की ओर बढ़ता है। दोनों के बीच प्रांगण में ऊंचा एकाश्म अरुणस्तंभ था जो अब जगन्नाथपुरी के मंदिर के सामने लगा है। जगमोहन और देउल एक ही जगती पर खड़े हैं और परस्पर संबद्ध हैं। जगती के नीचे गजथर बना है जिसमें विभिन्न मुद्राओं में हाथियों के सजीव दृश्य अंकित हैं। गजथर के ऊपर जगती अनेक घाटों और नाना भांति की मूर्तियों से अलंकृत है। संसारचक्र की कल्पना पुष्ट करने के लिए जगती की रचना रथ के सदृश की गई है और इसमें चौबीस वृहदाकार (9 फुट 8 इंच व्यास के) चक्के लगे हैं जिनका अंग-प्रत्यंग सूक्ष्म अलंकरणों से लदा हुआ है। जगती के अग्र भाग में सोपान-पंक्ति है जिसके एक ओर तीन और दूसरी ओर चार दौड़ते घोड़े बने हैं। ये सप्ताश्व सूर्यदेव की गति और वेग के प्रतीक हैं जिनसे जगत आलोकित और प्राणन्वित है। देउल का शिखर नष्ट हो गया है और जंघा भी भग्नावस्था में है, पर जगमोहन सुरक्षित है और बाहर से 100 फुट लंबा-चौड़ा और इतना ही ऊंचा है। भग्नावशेष से अनुमान है कि देउल का शिखर 200 फुट से भी अधिक ऊंचा और उत्तर भारत का सबसे उत्तुंग शिखर रहा होगा। देउल और जगमोहन दोनों ही पंचरथ और पंचांग हैं, पर प्रत्येक रथ के अनेक उपांग हैं और तलच्छंद की रेखाएं शिखर तक चलती हैं। गर्भगृह (25 फुट वर्ग) के तीनों भद्रों में गहरे देवकोष्ठ बने हैं जिनमें सूर्यदेव की अलौकिक आभामय पुरुषाकृति मूर्तियां विराजमान हैं। जगमोहन का अलंकृत अवशाखा द्वार ही भीतर का प्रवेशद्वार है। जगमोहन भीतर से सादा, पर बाहर से अलंकरणों से सुसज्जित है। वास्तुतत्वज्ञों की राय में इससे सुघड़ और उपयुक्त शिखर कल्पनातीत है। इस मंदिर का निर्माण गंग वंश के प्रतापी नरेश नरसिंह देव प्रथम (1238-64 ई.) ने अपनी एक विजय के स्मारक स्वरूप कराया था। इसके निर्माण में 1200 कारीगर 12 वर्ष तक निरंतर लगे रहे। अबुल फजल ने अपनी आईने-अकबरी में लिखा है कि इस मंदिर में उड़ीसा राज्य के बारह वर्ष की समूची आय लगी थी। उनका यह भी कहना है कि यह मंदिर नवीं शती ईस्वी में बना था। उस समय इसे केसरी वंश के किसी नरेश ने बनाया था। बाद में नरसिंह देव ने उसको नवीन रूप दिया। इस मंदिर के आस-पास बहुत दूर तक किसी पर्वत के चिन्ह नहीं हैं, ऐसी अवस्था में इस विशालकाय मंदिर के निर्माण के लिए पत्थर कहां से और कैसे लाए गए, यह एक अनुत्तरित जिज्ञासा है।

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