आस्था और राजनीति का खतरनाक घालमेल

राकेश कपूर

लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

नेतागण अपनी चुनावी वैतरणी पार लगाने के लिए आश्रमों-डेरों-संस्थानों का सहारा लेते हैं और सत्ता में आने के बाद जनता के प्रति अपने संवैधानिक कर्त्तव्यों के निर्वहन से भी किनारा कर लेते हैं। फिर धीरे-धीरे यही नेता बाबाओं के आश्रम में मानसिक व शारीरिक रूप से बंधुआ बन कर रह जाते हैं…

सीबीआई अदालत ने एक साहसिक फैसले से डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत को अभी सजा सुनाई भी नहीं थी कि उसके समर्थकों ने हिंसा, लूटपाट और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर एक नया पाखंड रचा। इस पूरी साजिश में मूकदर्शक बनी सरकार तथा प्रशासन की भूमिका पर पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा, ‘राजनीतिक फायदे के लिए प्रदेश जलने दिया गया’। इस पूरे प्रकरण से देश में एक नई बहस छिड़ गई है कि आखिर क्यों इन व्याभिचारी, भ्रष्टाचारी, धर्म के कथित व्यापारियों ने अध्यात्म का कारोबार करना शुरू कर दिया है? चाहे गुरमीत राम रहीम हो, आसाराम हो, राम वृक्ष यादव हो, रामपाल हो, राधे मां हो या स्वामी परमानंद हो, इन सब ने अपने चेहरे पर नकाब चढ़ाकर देश की भोली-भाली जनता को मूर्ख बना कर उनका आर्थिक, शारीरिक और मानसिक शोषण ही किया। इस भयावह परिदृश्य का और भी भयानक स्वरूप बन जाता है, जब देश के लोकतंत्र के प्रहरी प्रशासन और सरकार इन कथित बाबाओं और साध्वियों के कुकृत्यों को प्रश्रय (भले ही परोक्ष रूप में) देते हों। नेतागण सार्वजनिक दरबारों में लाखों की भीड़ के समक्ष इनके आगे नतमस्तक होकर अपनी चुनावी वैतरणी पार लगाने के लिए इन आश्रमों-डेरों-संस्थानों का सहारा लेकर देश के आम नागरिक के प्रति अपने संवैधानिक कर्त्तव्यों के वहन से भी किनारा कर लेते हैं।

भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में कथित धर्मगुरुओं की राजनीतिक सत्ता का सफर स्व. धीरेंद्र ब्रह्मचारी से प्रारंभ होकर चंद्रास्वामी के रास्ते राम रहीम तक पहुंचा। देश के लगभग सभी राज्यों में इस प्रकार के डेरों, आश्रमों, मंदिरों या ट्रस्टों में अंधभक्तों की भीड़ के  चलते ये सभी राजनीतिक हित साधकों के केंद्र बन गए हैं। एक जानकारी के अनुसार अकेले पंजाब में इस प्रकार के डेरों की संख्या 275 के आसपास है। हरियाणा में लगभग 290, राजस्थान में 1550, उत्तर प्रदेश में 3000 से ऊपर पहुंच गई है। इन डेरों के अनुयायियों, भक्तों या प्रेमियों की संख्या करोड़ों में है। जैसा कि राम रहीम ने दावा किया कि उनके समर्थकों की संख्या करीब छह करोड़ है, जो उनके विरुद्ध फैसला आने पर कुछ भी कर सकते हैं। पूर्व में आसाराम भी ऐसा प्रयोग कर चुके हैं। जब संवैधानिक दायित्व प्रदत्त संस्थाएं यानी कार्यपालिका और विधायिका ऐसे छद्म धर्म गुरुओं के समक्ष घुटने टेक दें, तो साहसिक न्यायपालिका, ‘छत्रपति’ जैसे साहसिक पत्रकारों व लड़ाई लड़ने की उग्र इच्छाशक्ति रखने वाली दो युवतियों जैसे के अटूट साहस के बल पर ही इन बाबाओं के विरुद्ध कार्रवाई संभव हो पाती है।

भारतवर्ष में राजनीतिक शक्तिकरण के साथ प्रारंभ हुई लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पहले राजनीतिज्ञों द्वारा आपराधिक व्यक्तियों के बाहुबल से चुनाव प्रभावित करने का सफल प्रयोग हुआ। पप्पू यादव, अतीक अहमद जैसे नेता इसी की देन हैं। बाद में अपराधियों के राजनीतिककरण की परिणिति में ‘फूलन देवी’ सहित कई डकैत, हत्या-चोरी के आरोपी विधानसभाओं और संसद में पहुंचने लगे।  इनमें से कइयों को सरकार में बड़े ओहदे भी मिले। इसी के साथ वाणिज्यिक अपराधियों यानी अपने व्यापारिक हितों की रक्षा हेतु संसद, विधानसभा प्रवेश (ऊपरी सदन के माध्यम से) का चलन नई व्यवस्था है। विजय माल्या की राज्यसभा सदस्यता इसका प्रमाण है। अभी यह भी एक विचारणीय  प्रश्न है कि आखिर क्यों लोग इन डेरों, आश्रमों के फेरों में पड़कर अंधे भक्त बन जाते हैं। इसका उत्तर भी कार्यपालिका, न्यायपालिका या विधायिका के अपने संवैधानिक दायित्वों की असफलता से उपजी गरीबी, बेरोजगारी, अधिकार हनन में निहित है। पंजाब, हरियाणा में सिख धर्म के गुरुघरों से नकोर, धुतकोर या बहिष्कृत ही इन डेरों के फेरों में पहुंचे हैं। मुक्ति का मार्ग दिखाकर इन डेरों ने लगभग सभी महिलाओं को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। इसके साथ ही धीरे-धीरे असंगठित अपराधियों की शरणस्थली बने इन डेरों को चुनावी बिसात में सबल मोहरों के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। धीरे-धीरे ये सभी संगठित अपराधों, हथियार जमा करने के केंद्र बनते गए।

70 वर्ष के असफल हुए लोकतांत्रिक व्यवस्था प्रबंधन की परिणिति स्वरूप आम आदमी को निराशा के बाद आशा की किरण दिखाकर बरगलाने में सफल हुए ये कथित बाबा लोग चमत्कारों के बल पर अपने अंध भक्तों की भीड़ बढ़ा लेते हैं। फिर धीरे-धीरे यही सब लोग बाबाओं के आश्रम में मानसिक व शारीरिक रूप से बंधुआ बन जाते हैं। उस विद्या में कला प्रवीण ये बाबा लोग चढ़ावे, भेंट, दान के नाम पर करोड़ों की संपत्ति अर्जित कर लेने के बाद भी निरंतर प्रवचनों, सत्संगों या आडियो-वीडियो के माध्यम से अपने भक्तों को त्याग, प्रेम, सद्भाव का संदेश देते हैं, पर अपने विरुद्ध मामला आने के बाद उन्हें हिंसा पर उकसा कर सार्वजनिक संपत्ति को फूंकने जैसे अपराध करने के लिए मजबूर करते हैं। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय और सीबीआई अदालतों ने जब हिंसाग्रस्त पंचकूला के नुकसान की भरपाई डेरा बाबा की डेरा संपत्ति को जब्त करके की जाएगी, मगर मूल प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि इस प्रकार के डेरों से किनारा करके राजनेता जनहित के कार्य करेंगे? इस पर नेताओं को खुद ही विचार करना चाहिए।

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