इसे योल कहें या पशुशाला

(सुरेश कुमार, योल, कांगड़ा )

जब प्रशासन सोता है, तब ऐसा ही होता है। जब जनता गूंगी हो, तभी प्रशासन सोता है। इन दोनों कारणों ने एक साफ-सुथरे स्थान को कूड़ाघर बना रखा है। वैसे कहने को तो योल छावनी है, पर शायद नाम की ही। जरा योल की सड़कों पर निकलो तो रात को सड़कों पर पशुओं के झुंड बैठे देखे जा सकते हैं और सुबह तक सभी सड़कें गोबर से पुती होती हैं। सड़कों पर बैठे इन लावारिस पशुओं के कारण कई बार बड़े सड़क हादसे हो चुके हैं, पर न प्रशासन जागा और न लोगों की जुबान खुली। योल में कुत्ते बेखौफ और स्कूली बच्चे खौफजदा। अब रही सही कसर बंदरों ने पूरी कर दी है। बंदर भी सोचने लगे हैं कि जब और पशु योल को अपनी जागीर समझने लगे हैं, तो फिर हम पीछे क्यों रहें? डीडी लाइन के पास लगता पशुओं का जमावड़ा यही तसदीक करता है कि योल में सबको आजादी है, चाहे वे पशु ही क्यों न हों?  वे कहीं भी बीच सड़क में बैठ सकते हैं। आवारा कुत्ते और बंदर किसी भी स्कूली बच्चे को नोच सकते हैं। यूं तो योल प्रशासन के आगे नागरिक समुदाय का कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता, लेकिन सड़कों पर पशुओं की आवारगी पर यह आंखें मूंदे बैठा है। अगर यही सच है, तो प्रशासन को वेतन-भत्तों पर खर्च घटा लेना चाहिए, ताकि जनता को मलाल न हो। वैसे प्रशासन चाहे तो योल में बंद हुए डेयरी फार्म में इन लावारिस पशुओं के लिए गोशाला खोल सकता है या फिर प्रशासन इसका कोई दूसरा हल निकाले।