एम्स आने तक

जाहिर तौर पर एम्स जैसे संस्थान का शिलान्यास भी इलाज कर सकता है, इसलिए चुनाव की बिसात पर बिछे मुद्दे अब दीवारों पर लिखे जा रहे हैं। देश के प्रधानमंत्री की चुनावी सौगात बिलासपुर में कितना सियासी अमृत पिलाती है, इससे पहले यह गौर करना होगा कि इस मील पत्थर का राजनीतिक अर्थ क्या होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अचानक चुनाव पूर्व रैली की पटकथा बिलासपुर में लिखी गई, तो चिकित्सा संस्थान की पैरवी में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा का कद और कारनामा समझा जाएगा। यह दीगर है कि चुनावी महाभारत का जो अलख पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कांगड़ा में जगा गए, उसमें नारेबाजी का जुनून पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल का नाम रटता देखा गया। प्रश्न यह भी कि क्या एक एम्स का शिलान्यास नड्डा का आरोहण कर देगा या हिमाचली सियासत में फंसे अन्य शिलान्यास यूं ही छोड़ दिए जाएंगे। जो भी हो तीन अक्तूबर की यह रैली मात्र शिलान्यास के कारण नहीं जानी जाएगी, बल्कि केंद्र सरकार के प्रश्रय व तरजीह के आलम में खड़े नड्डा के प्रति हर कयास का समर्थन करेगी। यह दीगर है कि स्पष्ट शब्दों में किसी एक नेता पर भाजपा मुहर लगाने के अपने परहेज पर कायम रहेगी, लेकिन रैली के मंतव्य का फिल्मांकन अवश्य ही होगा। करीब एक साल से अपनी चुनावी संभावना और परिस्थितियों को मजबूत करने में जुटी भाजपा अचानक विकास के मोड पर आई है, तो देखना यह है कि कहीं वीरभद्र सरकार की विकास गाथा के पड़ाव पर केंद्र सरकार को अपना प्रभुत्व समझाने की नौबत तो नहीं आ गई। हालांकि कांगड़ा में अमित शाह स्पष्टता से केंद्र की नीतियों-कार्यक्रमों का हवाला देते हुए वीरभद्र से मोदी सरकार के पैसे का हिसाब पूछते देखे गए, फिर भी यह मानना पड़ेगा कि इस दौरान प्रदेश में धड़ाधड़ शिलान्यास व उद्घाटन हो रहे हैं। विकास का स्थायी मुद्दा हिमाचली सियासत का अहम हिस्सा रहा है और इसी के आसपास ही क्षेत्रवाद भी रहा है, तो केंद्र एम्स के बहाने अपने नाम और काम की हिफाजत कर रहा है या एकमात्र शिलान्यास बिलासपुर में करके क्षेत्रवाद के नजदीक खड़ा हो रहा है। मसला अगर केंद्र सरकार की नीति और नीयत का है, तो वर्षों से झूल रहे केंद्रीय विश्वविद्यालय के जन्म स्थान कांगड़ा पर मोदी की बयार चाहिए। हिमाचल का अब तक का सबसे बड़ा सियासी पंगा भी यही है कि केंद्रीय विश्वविद्यालय का अस्तित्व कांगड़ा को क्या देगा और क्या छीन लेगा। पिछली दो बार की भाजपाई सत्ता के शीर्ष पर हमीरपुर संसदीय क्षेत्र की वरीयता बढ़ी है और इसी प्राथमिकता के आधार पर एम्स का शिलान्यास भी दर्ज हो रहा है। केंद्रीय विश्वविद्यालय का शीर्षासन भी हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के देहरा में होता रहा है, तो इसका शिलान्यास भाजपा के बिंदुओं का केंद्र बताएगा। हालांकि केंद्र सरकार को अगर नजराना ही बताना है, तो अपने विजन दस्तावेज के जरिए बता सकती है, लेकिन यहां तो सुर और साज बजाना है। ऐसे में भाजपा के सामने वीरभद्र के विकास का पेंच ऐसी स्थिति में अड़ा है, जहां प्रदेश सरकार का सीधा मुकाबला केंद्र से होगा। इसमें दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री की चुनाव पूर्व हो रही रैली भी यही बताएगी कि केंद्र के साथ चलते हुए हिमाचल क्या हासिल कर सकता है। विडंबना यह रही कि पिछले करीब साढ़े तीन साल की मोदी हुकूमत के हिमाचली नुमाइंदों ने राजनीति को आगे सरका कर विकास की रूपरेखा पर पर्दा डाले रखा। कुछ अहम परियोजनाओं और केंद्रीय संस्थानों से जुड़ी हिमाचली महत्त्वाकांक्षा को रोका गया, तो अब इस बढ़त को समझना होगा, जिस पथ पर मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह अपनी तरह के सारथी बने रहे। हम प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर लंबी-चौड़ी बहस करके यथार्थवादी हो सकते हैं, लेकिन आम जनता के हिस्से में आई निरी-घोषणाएं भी गजब ढहा सकती हैं। बेशक भाजपा ने भ्रष्टाचार व कानून-व्यवस्था पर वीरभद्र सरकार को घेरने का नारा बुलंद किया है, लेकिन विकास के माथे पर खिंची लकीरें नजरअंदाज नहीं हो सकतीं। यह तो पूछा जाएगा कि स्वां तटीकरण परियोजना को किसने रोका या भाजपा का कौन सा पक्ष केंद्रीय विश्वविद्यालय को रोकता रहा। किसने ट्रिपल आईटी के बैनर फाड़े या स्मार्ट सिटी के होर्डिंग उखाड़े। आम हिमाचली तुलनात्मक अध्ययन करता हुए हरियाणा की खट्टर सरकार के मॉडल पर भी गौर करेगा कि अगर वहां का घटनाक्रम मुख्यमंत्री को साधुवाद देता है, तो हिमाचल के कठघरे इतने खूंखार क्यों रहे। अब देखना यह होगा कि शाह की कांगड़ा रैली और प्रधानमंत्री की बिलासपुर रैली के बीच स्थापित हो रहे राजनीतिक पुल पर खड़ी संभावनाएं किस हिमाचली नेता की तकदीर लिखेंगी। बिलासपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आगमन अगर चुनावी दृश्य का आगोश है, तो क्या जगत प्रकाश नड्डा इसमें बैठ रहे हैं या इस पचड़े से बाहर पार्टी को निकालने का दम रैली में दिखाई देगा।