कविता

कोई सत्ता नहीं

एक सुबह रोज

दस्तक देती है

एक सूरज अकसर

आवाज देता रहता है

साथ चलने का आग्रह

करता रहता है

उन बस्तियों, मोहल्लों, गांवों तक

जहां प्रकाश की किरणें

कभी सीधी रेखा में नहीं चलती

रस्मों-रिवाजों की घिसी-पिटी चक्कियां

बारीक नहीं

खासा मोटा पीसती हैं

हत्या, बलात्कार, हिंसा की घटना

दिलों को नहीं झिंझोड़ती

वरन एक बेरहम सी खबर बन

हवा में तैरती है

एक चुप को सौ सुख मानकर

जहां आज भी आदमी से

बड़ा और जरूरी है

उसके जात-मजहब का सवाल

कुछ लफ्ज मसलन ईमान, सच्चाई

प्यार, मुहब्बत, इनसानियत

बस किताबों में ही दर्ज रह गए हैं

खुली हवाएं, बगावत की निशानी हैं

और ऐसी कोई सत्ता नहीं

जहां बगावत के लिए

सूली की सजा न हो।

-हंसराज भारती, बसंतपुर, सरकाघाट, मंडी