गऊ पालन को लाभकारी बनाइए

कुलभूषण उपमन्यु

लेखक, हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं

किसी भी व्यवसाय को समाज आर्थिक लाभ के लिए ही करता है, इसलिए गोपालन को लाभकारी व्यवसाय बनाना होगा। खेती की पद्धति को धीरे-धीरे पशु आधारित बनाना होगा। रासायनिक खेती से दूर हटते हुए जैविक खेती, जो गोबर की खाद, गोमूत्र की खाद और दवाइयों पर निर्भर हो, उसे अपनाना होगा…

भारतवर्ष में गोपालन कृषि के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण व्यवसाय रहा है। आज भी कृषि पर 60 फीसदी आबादी निर्भर है। इस आबादी को आत्मनिर्भर कृषक बनाने में गोपालन महती भूमिका अदा कर सकता है। देश का बहुसंख्यक हिंदू समुदाय गाय को इसकी उपयोगिता के आधार पर ही श्रद्धा की दृष्टि से देखता आया है। कालक्रम में एक समाज परिस्थितिजन्य अनुभव के आधार पर कुछ मान्यताएं स्थापित करता है, जो धीरे-धीरे श्रद्धा का रूप ले लेती हैं। श्रद्धा उन मान्यताओं के संरक्षण की गारंटी बन जाती है। उस श्रद्धा के चलते ही गाय को अबध्य माना गया। गाय का दूध मां के दूध के बाद दूसरा जीवनदायी आहार है, विशेषकर बच्चों और बूढ़ों के लिए तो इसका कोई विकल्प नहीं है। भारतीय चिंतन धारा की यह विशेष प्रकृति रही है कि जीवनदायी तत्त्वों, पदार्थों, जीवों के प्रति श्रद्धा से देखना, उनकी सुरक्षा की गारंटी देने के लिए और उनके ऋण से मुक्त होने के लिए। ‘धर्मेण धारयते प्रजा’! धर्म वह जिससे प्रजा का पालन करने में सहायता मिले। इसी समझ पर चलते हुए व्यक्तिगत मुक्ति का प्रयास और साधना करता रहें। हम गोपालन पर दृढ़ता से खड़े रहें, यह जरूरी है। श्रद्धा को प्रकट करने का तरीका यह नहीं है कि कोई दूसरा जो गाय पर धार्मिक श्रद्धा नहीं रखता, उससे लड़ा जाए, बल्कि यह है कि गाय की हम हिंदू होने के नाते जितनी सेवा कर सकते हैं, उतनी करें। कौन ठीक है और कौन गलत, इसका फैसला तो ईश्वर पर ही छोड़ना चाहिए, परंतु एक देश में हम सब अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए सुखपूर्वक जी सकें, इसके लिए यह जरूरी हो जाता है कि हम एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करना सीखें। सरकारों का भी यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वे कानून का शासन चलाने पर दृढ़ रहने का कर्त्तव्य पालन करें, ताकि कोई भी सभ्य समाज की सीमाओं को लांघने का दुस्साहस न कर सके।

चाहे केरल में सार्वजनिक रूप में गोहत्या का कृत्य हो, बीफ फेस्टिवल जैसी विद्रूपताएं हों या बीफ रखने के शक में भीड़ द्वारा की गई हत्याएं, सभी पर समुचित दंडनीय कार्यवाही होनी चाहिए। यह जानना भी जरूरी है कि स्वघोषित गोरक्षक दलों में कितने गोपालन कार्य में लगे हैं, क्योंकि गोरक्षा का पहला कदम तो गोपालन ही है। गोपालन के लिए तत्पर रहे बिना गोरक्षा असंभव है। आज शहरों से गांवों तक गोधन को खुला लावारिस छोड़ा जा रहा है, तो इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करना भी जरूरी है। कहीं न कहीं गोपालन का आर्थिक पक्ष भी देखा जाना चाहिए। चारे के संकट के साथ-साथ चारा महंगा हो गया है, इस कार्य में मेहनत भी काफी लगती है, उसके अनुरूप आर्थिक लाभ मिलना चाहिए। इसके लिए कौन कार्य करेगा? क्या गोरक्षकों से इस दिशा में सक्रिय होने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए? दूध को सामान्य आहार में ज्यादा जगह देने की भी जरूरत है। ऐसा देखने में आता है कि बहुत से इलाकों में पूरे परिवार के लिए आधा लीटर भी दूध उपलब्ध नहीं होता, परंतु परिवार के भीतर दारू का सेवन करने वाले दो लीटर दारू गटक जाते हैं। इसे बंद करने के प्रयास भी सफल होते नहीं दिखते, फिर भी इस दिशा में सोचना तो पड़ेगा ही। परिवार के संसाधन यदि महंगी दारू पर खर्च हो जाएंगे तो दूध के लिए साधन कम पड़ जाएंगे। सरकारें तो दारू की कमाई के पीछे दीवानी रहती हैं और इसे प्रोत्साहित करने का काम करती रहती हैं। यदि कोई गाय को पालने में रुचि ही नहीं लेगा और उन्हें लावारिस छोड़ देगा, तो गोरक्षा कैसे होगी? इसलिए दुधारू या गैर दुधारू गोधन को पालना लाभकारी बने, इसके उपाय करने होंगे। यह कोई कठिन काम नहीं है, यदि समाज और सरकार इच्छाशक्ति से काम लें। भारत क्योंकि हिंदू बहुल देश है, इसलिए बहुमत की भावनाओं का आदर होना ही चाहिए और कानून के अनुसार व्यवहार करना सबकी जिम्मेदारी बनती है।

किसी भी व्यवसाय को समाज आर्थिक लाभ के लिए ही करता है, इसलिए गोपालन को लाभकारी व्यवसाय बनाना होगा। इसके लिए कुछ जरूरी कदम उठाने होंगे। सबसे पहले तो हमें चारे की सस्ती उपलब्धता करवानी होगी। इसके लिए चरागाह भूमि को खरपतवारों से मुक्त करके अच्छे घासों से भरना होगा। खेती की पद्धति को धीरे-धीरे पशु आधारित बनाना होगा। रासायनिक खेती से दूर हटते हुए जैविक खेती जो गोबर की खाद, गोमूत्र की खाद और दवाइयों पर निर्भर हो उसे अपनाना होगा। गोबर गैस का पूरा दोहन करने के लिए इसे एक स्वतंत्र व्यवसाय के रूप में विकसित करना चाहिए। दो तीन पशुओं के गोबर से एक दिन में लगभग 72 घनफुट गोबर गैस पैदा हो सकती है। इसे सिलेंडरों में भर कर रसोई गैस के रूप में बेचा जा सकता है। यूरोपीय नस्लें बहुत ज्यादा खाती हैं। ऐसे में यूरोपीय नस्लों के बजाय देशी अच्छी नस्लों को फैलाया जाए, तो घास की खपत कम की जा सकती है। हमारे पास 10 से 20 किलो दूध प्रति दिन देने वाली नस्लें हैं, जिनमें साहिवाल, गीर, सिंधी आदि प्रमुख हैं। देशी गायों का दूध ए-2 श्रेणी का है, जो सेहत के लिए अच्छा है। यूरोपीय नस्ल की गायों का दूध ए-1 श्रेणी का होता है, जिसमें हिस्टीडीन एमिनो एसिड होता है, जो पाचन क्रिया के समय बीटा कैथो मॉर्फीन यौगिक बनाता है। यह कई बीमारियों का कारण है। आस्ट्रेलिया में ए-2 श्रेणी का दूध दोगुने भाव पर बिकता है। इस अंतर को समझा कर भारतीय ग्राहकों को भी सम्यक वैज्ञानिक शोध से परिचित करवाना चाहिए। गोसेवा के लिए बहुत से ऐसे कार्य करने की जरूरत है। हंगामा खड़ा करने से कुछ होने वाला नहीं है।