जाट आरक्षण पर लटकती तलवार

जग मोहन ठाकन

लेखक, वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं

हर सरकार, हर राजनीतिक पार्टी, हर सर्वे, कृषि विभाग व कृषि विश्वविद्यालय की हर रिपोर्ट बताती है कि किसान पीडि़त है। उसे सभी प्रकार की प्राकृतिक मार झेलनी पड़ती है, उपज का सही मूल्य नहीं मिलता है और कृषि एक घाटे का व्यवसाय हो गया है। सभी किसान के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हैं। परंतु जैसे ही यह किसान जाट का रूप धारण करता है, सभी अन्य जातियों, जातिगत राजनीति करने वाले दलों व सरकारी तंत्र के लिए वह एक साधन संपन्न व गैर पिछड़ा हो जाता है। यह दोहरा आचरण कब तक जारी रहेगा…

सितंबर का महीना जाटों के लिए एक बार पुनः सितमगार साबित हुआ है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने हरियाणा में जाट समेत छह जातियों- जट सिख, मूला जाट, रोड, बिश्नोई तथा त्यागी को पिछडे़ वर्ग में आरक्षण देने पर 31 मार्च, 2018 तक रोक लगा दी है। उच्च न्यायालय ने मामला राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के हवाले कर दिया है। न्यायालय ने पिछड़ा वर्ग आयोग को निर्देश दिया है कि इन जातियों के सामाजिक-आर्थिक आंकड़े इकट्ठा करे। 30 नवंबर तक डाटा जमा कर 31 दिसंबर तक आपत्तियां दर्ज की जाएंगी तथा 31 मार्च, 2018 तक आयोग अपनी रपट न्यायालय में जमा कराएगा। गेंद अब दोबारा राजनीतिक गलियारों में उछलेगी। सरकार की नजर अब आगामी लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों में लाभ-हानि पर ज्यादा रहेगी और हो सकता है कि आंकड़े इकट्ठा करने एवं रपट तैयार करने में देरी का बहाना बनाकर सरकार इस 31 मार्च तक की समय सीमा को सरका कर आगामी चुनावों तक घसीट ले जाए। याचिकाकर्ता ने जाट आरक्षण का विरोध करते हुए मुद्दा उठाया कि जाटों का सरकारी नौकरियों में पहले से ही ज्यादा प्रतिनिधित्व है। याचिका कर्ता ने जाट आरक्षण कानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाते हुए उच्च न्यायालय के सम्मुख प्रदेश के शिक्षा विभाग के आंकड़े पेश करते हुए कहा कि विभिन्न पदों पर 30 से 56 प्रतिशत जाट पहले से ही काबिज हैं, तो फिर आरक्षण कोटा क्यों दिया जाए? हालांकि सरकार ने इन आंकड़ों को निराधार बताया है। अब प्रश्न उठता है कि क्या जाट आरक्षण का मुद्दा  हल हो जाएगा? शायद नहीं। क्योंकि जब तक प्रदेश व देश की सरकारें तहेदिल से इस समस्या का सटीक हल नहीं ढूंढेगी, तब तक ऐसे यक्ष प्रश्न उठते रहेंगे और न केवल जाट आरक्षण अपितु पटेल आरक्षण, राजस्थान के गुर्जर व अन्य सवर्ण जातियों के आरक्षण आंदोलन जारी रहेंगे तथा देश में विभिन्न जातियों के मध्य एक-दूसरे के प्रति वैमनस्य उत्पन्न होता रहेगा या उत्पन्न किया जाता रहेगा।

आरक्षण की मांग सामाजिक व शैक्षणिक  पिछड़ेपन तथा आर्थिक पिछड़ेपन दोनों आधारों पर उठ रही हैं। जहां हरियाणा के जाट व गुजरात के पटेल अपने लिए ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) में आरक्षण की मांग कर रहे हैं, वहीं राजस्थान के समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त सवर्ण जातियां आर्थिक आधार पर आरक्षण की गुहार लगा रही हैं। सुप्रीम  कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में आरक्षण की ऊपरी सीमा 50 प्रतिशत से अधिक न किए जाने का फैसला दिया था। इसके बावजूद विभिन्न प्रांतीय सरकारें 50 प्रतिशत से ज्यादा के आरक्षण बिल पास कर रही हैं और आरक्षण को इस 50 प्रतिशत की सीमा रेखा से ऊपर लागू भी कर रही हैं। हरियाणा में 23 जनवरी, 2013 को एक ही दिन हरियाणा सरकार ने दो अधिसूचनाएं जारी कीं। एक के तहत राज्य में पांच जातियों-जाट, बिश्नोई, जट्ट सिख, रोड व त्यागी को दस प्रतिशत का आरक्षण विशेष पिछड़ा वर्ग श्रेणी के तहत दिया था तथा क्रमांक 60 के तहत अन्य सर्वोच्च अगड़ी सवर्ण जातियों यथा ब्राह्मण, बनिया व राजपूत आदि को इकॉनोमिकली बैकवर्ड पर्सन (ईबीपी) श्रेणी के अंतर्गत 10 प्रतिशत का आर्थिक आधार पर आरक्षण प्रदान किया गया था। इन दोनों 20 प्रतिशत के आरक्षण के कारण हरियाणा प्रदेश में कुल आरक्षण सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा रेखा से ऊपर हो गया था, जो आज भी ऊपर चल रहा है। विभिन्न न्यायालयों द्वारा जाटों समेत पांच जातियों के आरक्षण को तो अवरोधित कर दिया गया है, परंतु हरियाणा में ईबीपी का 10 प्रतिशत का आरक्षण अभी भी लागू है और विभिन्न सरकारी नौकरियों में धड़ल्ले से इन श्रेणी के अभ्यर्थियों को आरक्षण दिया जा रहा है।

हरियाणा सरकार ने हरियाणा लोक सेवा आयोग के माध्यम से कुल 109 पद हरियाणा सिविल सेवा (न्यायिक ब्रांच) के लिए विज्ञापित किए थे। इन 109 पदों में से आठ पद इकॉनोमिकली बैकवर्ड  पर्सन श्रेणी (सामान्य वर्ग) के लिए आरक्षित रखे गए हैं, जिनमें हरियाणा में आरक्षित श्रेणी को छोड़कर सामान्य श्रेणी के ब्राह्मणों सहित सभी सवर्ण जातियों के वे व्यक्ति पात्र हैं, जिनकी वार्षिक आय 2.5 लाख रुपए से कम है। अचरज की बात यह है कि जाट इस श्रेणी में भी आरक्षण नहीं ले सकते। हरियाणा में आर्थिक आधार पर आरक्षण की यह अनूठी पहल है, जहां सर्वोच्च न्यायालय की 50 प्रतिशत की सीमा रेखा का भी उल्लंघन होता है तथा इंदिरा साहनी मामले में 1992 में सर्वोच्च न्यायालय के अगड़ी जातियों के आर्थिक रूप से गरीबों के लिए अलग से आरक्षण को अमान्य करार दिया जाने के बावजूद यह आरक्षण दिया जा रहा है। दूसरी तरफ राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा नौ दिसंबर, 2016 को गुर्जर जाति के पांच प्रतिशत के स्पेशल बैकवर्ड श्रेणी के आरक्षण को इस आधार पर अमान्य कर दिया गया था कि इस आरक्षण से राजस्थान राज्य में आरक्षण की ऊपरी सीमा 50 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है। देश में सर्वोच्च न्यायालय के निदेर्शों की अनुपालना दो तरह से हो रही है। इसमें कोई शक नहीं है कि गुर्जर सामाजिक, शैक्षणिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़ी हुई जाति है। गुर्जर जाति पहले से ही राजस्थान की ओबीसी श्रेणी के 21 प्रतिशत कोटे में शामिल थी, परंतु गुर्जरों को लगता था कि उन्हें अन्य ओबीसी जातियों के मुकाबले कम प्रतिनिधित्व मिलता है, इसलिए उन्होंने बार-बार आंदोलनों व सरकार से गुहार के बाद पांच प्रतिशत अलग से एसबीसी कोटा प्राप्त किया था। परंतु कोर्ट द्वारा उपरोक्त एसबीसी कोटे को अमान्य करार देने से गुर्जर न घर के रहे न घाट के। राजस्थान सरकार ने सितंबर, 2015 में समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त ब्राह्मणों, बनियों व राजपूतों समेत अन्य अगड़ी सवर्ण जातियों के लिए आर्थिक आधार पर 14 प्रतिशत का कोटा बिल पारित किया था, परंतु  सरकार द्वारा इसे अभी तक इस भय से लागू नहीं किया जा रहा कि कोर्ट इसे फिर 50 प्रतिशत से अधिक सीमा रेखा के नाम पर रद्द कर देगा।

हालांकि उपरोक्त सवर्ण जातियां सरकार पर आंदोलन की धमकी देकर दबाव बनाने की चेष्टा भी कर रही हैं। अगले वर्ष राजस्थान राज्य में विधानसभा चुनाव भी होने हैं। हो सकता है सरकार इन अगड़ी जातियों के लिए चुनाव से ठीक पहले आरक्षण की अधिसूचना जारी कर आरक्षण का लालीपोप थमा दे। हरियाणा के जाट व अन्य जातियों के ओबीसी में शामिल करने की मांग व राजस्थान में अगड़ी जातियों की आर्थिक आधार पर पिछड़े वर्ग को आरक्षण की मांग विभिन्न स्तरों पर सरकारों व राजनीतिक दलों की साजिश की शिकार होती रही हैं। अगर यही परिदृश्य रहा, तो ये आगे भी शिकार होती रहेंगी। एक मोटे अनुमान के अनुसार 80 प्रतिशत से अधिक हरियाणा के जाट कृषि व पशुपालन का कार्य करते हैं। यह सभी जानते हैं कि  कृषि व पशुपालन व्यवसाय शारीरिक श्रम के सहारे ही संचालित होते हैं। आज केवल सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक रूप से पिछड़ा व्यक्ति ही  शारीरिक श्रम पर निर्भर है। गोबर में हाथ तो एक पिछड़ा व्यक्ति ही डाल सकता है, बाकी को तो गोबर में बदबू आती है। हर सरकार, हर राजनीतिक पार्टी, हर सर्वे, कृषि विभाग व कृषि विश्वविद्यालय की हर रिपोर्ट बताती है कि किसान पीडि़त है। उसे सभी प्रकार की प्राकृतिक मार झेलनी पड़ती है, उपज का सही मूल्य नहीं मिलता है और कृषि एक घाटे का व्यवसाय हो गया है। सभी किसान के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हैं। परंतु जैसे ही यह किसान जाट का रूप धारण करता है, सभी अन्य जातियों, जातिगत राजनीति करने वाले दलों व सरकारी तंत्र के लिए वह एक साधन संपन्न व गैर पिछड़ा हो जाता है। यह दोहरा आचरण जब तक जारी रहेगा?