दैनिक बोलचाल में हिंदी को अपनाने का वक्त

कश्मीरी लाल नोते

लेखक, शिमला से हैं

युवाओं ने भले उर्दू बतौर स्कूली विषय न पढ़ी हो, पर इनमें ढले शे’र-ओ-शायरी, गजलें व गीतों को वे बखूबी समझते हैं। वहीं अंग्रेजी भाषा के लिए मोह की हद यह है कि एक अनपढ़ भी इसे आदर की नजर से देखता है। लिहाजा भारतीयों के रहने-बसने में जो भाषाएं पिछली दस शताब्दियों में रच गई हैं, उन्हें तुरंत निकाल फेंकना असंभव न सही, मुश्किल जरूर है…

हिंदी भाषा एशिया महाद्वीप में प्रचलित एक महत्त्वपूर्ण भाषा है। ‘भाषा’ शब्द संस्कृत के शब्दांक द्वारा भाष धातु से उत्पन्न समझा जाता है। ‘भाषा’ का शाब्दिक अर्थ वाणी या आवाज विचार की अभिव्यक्ति है। यानी भाषा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को दूसरे लोगों के साथ साझा करते हैं। सारे संसार में लगभग अठाइस सौ भाषाओं का चलन है, जिनमें 13 बड़ी भाषाओं को समस्त संसार के लगभग 60 करोड़ लोग समझते और उपयोग करते हैं। उन 13 भाषाओं में हिंदी पांचवें स्थान पर है और थोड़ी-बहुत स्थानीय तबदीलियों के साथ भारत के निकट बसे पड़ोसी देशों जैसे कि बर्मा, श्रीलंका, मारिशस, द्रिनिडाड, फीजी, मलाया, सुरीनाम, नेपाल, भूटान, दक्षिणी और पूर्वी अफ्रीका इत्यादि देशों में भी आंशिक रूप में इसका उपयोग होता है। नेपाल की भाषा तो देवनागरी लिपि में हिंदी जैसी ही है। 11वीं शताब्दी  में मध्य एशिया के यवनों के आक्रमणों और उनके शासन का दौर शुरू हुआ। तब हमारे यहां प्रचलित भारतीय खड़ी बोली, प्राकृत एवं भोजपुरी भाषाओं में अरबी और फारसी भाषाओं का विलय होता गया और भारतीय उन पश्चिमी भाषाओं के शब्दों से अपभ्रंशित बोली, उर्दू बोलने व उपयोग करने लग गए। इस तरह सरकारी कामकाज हिंदी की बजाय अरबी/फारसी लिपि वाली उर्दू में होने लगा।

सोलहवीं शताब्दी में पश्चिमी जगत से यूरोप वासियों का आना शुरू हुआ। फ्रांसीसियों व पुर्तगालियों से कहीं ज्यादा यहां अंग्रेज आए। उनकी ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापार के साथ-साथ स्थानीय नवाबों व राजाओं को खुद अंग्रेज सैन्य शक्ति बन कर ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व अधिकार हथियाने शुरू कर दिए। राजस्व अधिकार प्राप्त हो जाने पर अंग्रेजों को स्थानीय लोगों के साथ प्रभावी ढंग से निपटने के लिए यहां मिशनरीज और अग्रेजी स्कूलों व कालेजों के माध्यम से इच्छुक लोगों में अंग्रेजी भाषा को प्रवाहित किया। इस तरह सरकारी कामकाज में उर्दू के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा भी प्रयोग होने लगी। हिंदी भाषा का सरकारी भाषा के तौर पर उपयोग यवन और अंग्रेजी शासन के दौरान बहुत कम रहा, पर बोलचाल में अंग्रेजी और उर्दू शब्द इस में धीरे-धीरे ज्यादा से ज्यादा पनपते गए। बीसवीं सदी में आजादी के लिए संघर्ष ने जोर पकड़ा तो स्वतंत्रवीर सावरकर जैसे नेताओं ने सन् 1940 में पुणे में हिंदी को भारत की राष्ट्र भाषा बनाने के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया। उन्होंने अंग्रेजी जुबान पर निर्भरता कम करते हुए हिंदी भाषा के प्रगतिशाल उपयोग पर जोर दिया। शुरू-शुरू में महात्मा गांधी ने भी वीर सावरकर द्वारा हिंदी भाषा की बढ़त पर सहमति जताई। पर उसी दौर में मोहम्मद अली जिन्ना जैसे मुसलमान स्वतंत्रता सेनानियों की मंशानुसार हिंदी के साथ-साथ उर्दू का भी राष्ट्र भाषा में दखल रखने पर जोर दिया। 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया और 26 जनवरी, 1950 के दिन भारत का संविधान तैयार हो कर लागू हो गया। संविधान में अनुच्छेद-343 के अंतर्गत हिंदी को देवनागरी लिपि में राज भाषा का दर्जा दिया गया। संविधान में आने वाले अगले 15 वर्षों में सरकारी कामकाज से अंग्रेजी को हटा कर हिंदी में करने का प्रस्ताव भी रखा गया था, पर उस प्रस्ताव पर आज 70 वर्ष बीत जाने के बावजूद पूर्णतया लागू नहीं किया जा सका है।

भारत में सरकारी कामकाज अंग्रेजी को हटा कर हिंदी में ही करने बारे भारत में इंग्लैंड की रेडियो ब्रॉडकास्टिंग कंपनी, बीबीसी की ओर से कई वर्ष भारत में कार्यरत रहे प्रतिनिधि, मार्क तुली का एक बयान बड़ा मौजूं व गौरतलब है। मार्क तुली को बीबीसी के एक उच्च अधिकारी ने एक बार पूछा कि भारत की सरकारी भाषा के तौर पर अंग्रेजी के हटाए जाने और समस्त सरकारी काम को हिंदी में ही किए जाने की तबदीली बारे उनका अनुमान क्या है? मार्क तुली ने उत्तर दिया था कि भारत से अंग्रेजी राज तो जरूर हट गया है, पर हिंदोस्तानियों में अंग्रेजों वाले रंग-ढंग व चलन ज्यों के त्यों चालू हैं। कहना न होगा कि भारतवासियों में अंग्रेजी भाषा के लिए मोह की हद यह है कि नितांत अनपढ़ से अनपढ़ भी अंग्रेजी भाषा को आदर की नजर से देखता है, समाज के पढ़े-लिखे व सभ्य लोगों की तो बात ही क्या है। हर कोई अपने बच्चों को यथा सामर्थ्य अंग्रेजी स्कूल में भेजना चाहता है। हर कोई गरीब-अमीर, शिक्षित-अनपढ़ अंगे्रजी शब्दों, जैसे कि मम्मी, डैडी, अंकल, आंटी, सरजी, मैडमजी इत्यादि शब्दों के उपयोग में व उन्हें बोलने व सुनने में शान समझते हैं। यही हाल उर्दू के शब्दों का भी है। आज के युवाओं ने उर्दू जुबान बतौर स्कूली विषय न भी पढ़ी हो, पर इनमें ढले शे’र-ओ-शायरी, गजल, गीतों को वे बखूबी समझते हैं। पटवार/कानूगोई रिकार्ड उर्दू शब्दों से भरा हुआ है। लिपि बेशक देवनागरी है, पर शब्द उर्दू के ही चल रहे हैं। अतः यह बात स्पष्ट है कि भारतीयों के रहने-बसने में जो बोलचाल व भाषाएं पिछली दस शताब्दियों में रच गई हैं, उन को तुरंत निकाल फेंकना असंभव न सही, मुश्किल जरूर है। अलबत्ता, हमारे संविधान में जो निर्धारण हिंदी भाषा के लिए प्रस्तावित किया गया है, उसका अनुपालन हम सब भारतीयों का फर्ज है। इस प्रस्ताव का आशाजनक पहलू यह है कि देवनागरी लिपि सीखने और लिखने-पढ़ने में काफी सीधी-साधी और हिज्जों में अटपटेपन से ऊपर है। हम भारतवासियों का कर्त्तव्य है कि हम अपने राष्ट्र की राजभाषा हिंदी को सीखने, पढ़ने और अपनी दैनिक कार्यशैली में ज्यादा से ज्यादा उपयोग करने का लगातार प्रयत्न करते रहें।

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