हमने कभी भी ऐसी शक्ति बनने की कोशिश नहीं की, जो पूरी दुनिया पर अपना शासन कर सके। ऐसा कोई इतिहास नहीं मिलता कि भारत ने किसी और की जमीन पर जाकर अपना कब्जा जमाया हो। हम लोग दूसरे देशों में किसी और के पहुंचने से पहले पहुंचे, लेकिन जब हम वहां गए तो अपने साथ अपनी कला लेकर गए, अपना संगीत लेकर गए, अपनी नृत्य कला लेकर गए, अपने मंदिर लेकर गए, लेकिन कभी हम उन्हें जीतने के लिए अपने साथ तलवार व बंदूक लेकर नहीं गए…
-सद्गुरु जग्गी वासुदेव
रामचरित मानस के मंत्र
गुरू गृह गए पढ़न रघुराई।
अल्प काल विद्या सब आई।।
झगड़े में विजय प्राप्ति के लिए मंत्र :
कृपादृष्टि करि वृष्टि प्रभु अभय किए सुरवृन्द।
भालु कोल सब हरषे जय सुखधाम मुकुंद ।।
ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए मंत्र :
लगे सवारन सकल सुर वाहन विविध विमान।
होई सगुन मंगल सुखद कंरहि अप्सरा गान।।
संकट नाश के लिए मंत्र :
दिन दयाल बिरिदु सम्भारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी।।
जीविका प्राप्ति के लिए मंत्र :
विस्व भरण पोषण कर जोई।
ताकर नाम भरत जस होई।।
सभी विपत्ति नाश के लिए मंत्र :
राजीव नयन धरे धनु सायक।
भगत विपत्ति भंजक सुखदायक।।
विघ्न निवारण के लिए मंत्र :
सकल विघ्न व्यापहि नहिं तेही।
राम सुकृपा बिलोकहि जेही।।
मुकदमे में विजय के लिए मंत्र :
पवन तन्य बल पवन समाना।
बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना।।
शत्रु नाश के लिए मंत्र :
बयरू न कर काहू सन कोई।
रामप्रताप विषमता खोई।।
अपयश नाश के लिए मंत्र :
रामकृपा अवरैब सुधारी।
विबुध धारि भई गुनद गोहारी।।
सर्वपीड़ा नाश के लिए मंत्र :
जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।
सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल।।
सर्वसुख प्राप्ति के लिए मंत्र :
सुनहि विमुक्त बिरत अरू विषई।
लहहि भगति गति संपत्ति सई।।
ऋद्धि-सिद्धि प्राप्ति के लिए मंत्र :
साधक नाम जपहि लय लाएं ।
होहि सिद्ध अनिमादिक पाएं ।।
मर्यादा पुरुषोत्तम का विजयरथ
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा।
देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।
बंदि चरन कह सहित सनेहा॥
भावार्थ- रावण रथ पर सवार होकर रणभूमि में पहुंचता है और भगवान राम बिना रथ के ही उससे लड़ने के लिए रणभूमि में चलने को तत्पर हो जाते हैं। इसे देखकर विभीषण अधीर हो जाते हैं, उनके भीतर राम की विजय के प्रति संदेह पैदा हो जाता है और वह भगवान राम से विनम्रता सहित एक प्रश्न पूछते हैं ः
नाथ न रथ नहि तन पद त्राना।
केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना।
जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥
भावार्थ-हे नाथ! आपके पास रथ नहीं है, तन की रक्षा के लिए कवच नहीं है, आप नंगे पैर हैं। रथ पर सवार रावण को आप किस प्रकार जीत पाएंगे? इस पर कृपानिधान श्री रामजी ने कहा- हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे।
छमा कृपा समता रजु जोरे॥
भावार्थ- जिस रथ से विजय मिलती है, शौर्य और धैर्य उसके पहिए हैं। सत्य और शील पर आधारित सद्आचरण उस रथ की ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, इंद्रिय निग्रह और परोपकार रूपी चार घोड़े उस रथ को खींचते हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जुड़े रहते हैं।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहं न कतहुं रिपु ताकें।।
भावार्थ-हे मित्र विभीषण! जिसके पास ऐसा धर्ममय रथ है, उसे संपूर्ण संसार में कोई भी नहीं पराजित कर सकता।
विजयदशमी का पर्व सत्य की विजय का पर्व है। यह बताता है कि धर्मयुक्त आचरण भी विजय का अमोघ अस्त्र है। राम तथा विभीषण का यह संवाद भी सत्य, धर्म और विजय को एक-दूसरे का पर्याय बताता है।
आयुद्ध पूजा का महत्त्व
उपकरणों का आदर
एक सुई जैसी छोटी सी वस्तु का भी उद्देश्य है। सुई न हो, तो आपने जो कपड़े पहन रखे हैं, वे भी नहीं होंगे। इसलिए, बहुत छोटी-छोटी चीजें जीवन में बहुत महत्व रखती हैं। ‘आयुद्ध पूजा’ वह दिन है जिसमें हम इन उपकरणों का आदर करते हैं और उनके प्रति कृतज्ञ होते हैं क्योंकि इनका हमारे जीवन में बहुत महत्व है। छोटी-छोटी चीजें जैसे पिन, चाकू, कैंची, हथकल से लेकर बड़ी मशीनें, गाडि़यां, बसें इत्यादि-इन सभी का आदर होता है। ये एक ही दिव्यता का अंग हैं। परंपरा के अनुसार नवरात्रि का उत्सव शरद ऋतु के आरंभ में मनाया जाता है, जब प्रकृति में सब कुछ परिवर्तित हो रहा होता है। ये नौ रातें बहुत अनमोल होती हैं, क्योंकि साल के इन दिनों में सृष्टि की कुछ सूक्ष्म ऊर्जाएं बहुत बड़ी हुई होती हैं। ये सूक्ष्म ऊर्जाएं अंतर्मुखी होने में, प्रार्थना और जाप करने में और आध्यात्मिक साधना करने में हमारी मदद करती हैं जिससे इनका अनुभव और अधिक गहरा होता है।
एक ही दिव्यता
सभी उपकरण मन के द्वारा रचित हैं और मन ईश्वर के द्वारा रचित है। बल्कि, मन ईश्वर ही है। और इस मन में कुछ निर्माण करने के जो भी विचार आते हैं, जैसे हवाई जहाज, कैमरा, माइक-ये सभी विचार एक ही स्रोत से आए हैं और वह स्रोत है ‘देवी’। इसी का जाप हम चंडी होमा में करते हैं-या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता अर्थात, देवी मां जो प्रत्येक जीव के अंदर बुद्धि के रूप में निवास करती हैं, उन्हें मैं प्रणाम करता हूं। यह एक ही दिव्यता है जो हर जीव में बुद्धि बनकर प्रकट होती है। यह एक ही दिव्यता है जो हर मनुष्य में भूख और नींद के रूप में उपस्थित है। और यह एक ही दिव्यता है जो उत्तेजना और अशांति के रूप में भी व्याप्त है। केवल यह सजगता, कि हर ओर केवल एक वही दिव्यता मौजूद है, हमारे मन को शांत कर देता है। तो आपको यह कहने की जरूरत नहीं है कि, ‘मैं इस मन का क्या करूं?’ आप अपने मन के साथ कुछ भी करने का प्रयास न करें। केवल विश्राम करें। जितना भी हो सके, उतना सेवा के कार्य करें और केवल विश्राम करें। आज के दिन (विजयदशमी) को आइए, हम सब यह संकल्प लें कि हमें जीवन में जो भी कुछ मिला है, उसका उपयोग हम विश्व के कल्याण के लिए करें।
श्री श्री रविशंकर