श्रद्धा तो ज्योति है

बाबा हरदेव

तत्त्व ज्ञानियों का कथन है कि ‘श्रद्धा’ अकारण है, इसमें वासना, कामना और तृष्णा नहीं होती। ‘श्रद्धा’ उपकरण नहीं है, बल्कि श्रद्धा अखंड चेतना की श्वास है। श्रद्धा कोई संकल्प भी नहीं है और न श्रद्धा कोई ठहरी हुई घटना है, यह तो गतात्मक है, प्रवाहमान है और सतत ब्रह्म भाव है। यह होती है, तो होती है, नहीं होती तो नहीं होती है। कोई चेष्टा करके श्रद्धा नहीं पा सका, श्रद्धा तो उपलब्धि ही है, श्रद्धा निर्णय नहीं है, श्रद्धा अंधविश्वास भी नहीं है, श्रद्धा सजगता है। यह तो हृदय की आंख के खुलने का नाम है। यह एक आंतरिक भाव है। यह बाहरी आवरणों पर नहीं, व्यक्तियों पर नहीं, शब्दों पर नहीं, श्रद्धा तो ज्योति पर होती है, यह सत्य होती है। भगवता पर होती है, मानो यह पूर्ण सद्गुरु का प्रसाद है। जैसे प्रेम घटित होता है वैसे ही श्रद्धा घटती है, क्योंकि श्रद्धा मन का हिस्सा नहीं है। चुनांचे श्रद्धा का अर्थ होता है मन के चेहरे को बुद्धि को एक तरफ रखकर अलग कर देना। अपनी सारी मान्यताएं, धारणाएं छोड़ देना, सब विचार वगैरह को तिलांजलि दे देना, क्योंकि पूर्ण सद्गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध है वो विचार का नहीं है, मान्यता का नहीं है, किसी धारणा का नहीं है, वो ‘श्रद्धा’ का है। वो प्रेम का है मानो आत्मीय संबंध है और फिर पूर्ण सद्गुरु का इशारा अपने हृदय में बिठा लेना और सदा के लिए सद्गुरु की आंखों में झांकना शुरू कर देना है। क्योंकि सद्गुरु परमात्मा का ही स्वरूप है, इसलिए जब मनुष्य सद्गुरु के पास बैठ जाता है, तब इसके चित में विरोध नहीं रहता, इसका चित स्थिर हो जाता है, मानों इस सूरत में भटकन खत्म हो जाती है, श्रद्धा विश्राम बना देती है और फिर मनुष्य उपासना और भक्ति में विलीन होना शुरू कर देता है। अब माता-पिता, पति-पत्नी, बेटा-बेटी यह सब आत्मीय संबंध नहीं हैं, यह तो शारीरिक संबंध हैं और इनमें फासले हैं। चुनांचे शारीरिक संबंध में केवल ‘आदर’ हो सकता है। आदर और श्रद्धा में बहुत फर्क है। उदाहरण के तौर पर किसी मनुष्य का आचरण बहुत अच्छा है, यह त्याग भावना रखता है, मिलनसार है, सबसे प्यार करता है, हमदर्दी करता है, मानों कारण मौजूद है इसीलिए इसके प्रति हमारे दिल में आदर पैदा हो जाएगा। जब फिर कोई कमी सामने आती है तो फिर यह आदर भाव टूट जाता है, मगर श्रद्धा तोड़ी नहीं जा सकती। श्रद्धा का अर्थ है अब ‘मैं’ नहीं केवल ‘तू’ ही है। वास्तविकता में श्रद्धा में सद्गुरु है क्योंकि शिष्य और सद्गुरु हृदय से जुड़े हैं। प्रेम का जो परम रूप है वो ‘श्रद्धा’ है। आध्यात्मिक जगत में श्रद्धा सबसे मूल्यवान तत्त्व है, क्योंकि श्रद्धा जीवन में उसको खोजती है, जिसका इशारा परमात्मा की ओर हो, जबकि तर्क (बुद्धि) को खोजता है, जिसका इशारा परमात्मा के विपरीत हो क्योंकि  तर्क परमात्मा के विपरीत की यात्रा है। श्रद्धा वर्तमान में देखती है, जबकि तर्क भविष्य निमुख है। श्रद्धा प्रमाण नहीं मांगती। जैसे बच्चा प्रमाण नहीं मांगता कि मां के स्तन में दूध का पहले पता मिले, तब यह मां के स्तन को मुंह लगाएगा। कहने का भाव है कि आपकी श्रद्धा सच्ची होनी चाहिए। परमात्मा को पाने के लिए महापुरुषों के मन में जो श्रद्धा और लगन थी, उसी पर चल कर उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। चुनांचे आजकल लोगों में यह भावना नाममात्र रह गई है। अध्यात्मिकता की पहली सीढ़ी ही यह है कि आपके मन में श्रद्धा का भाव होना बहुत जरूरी है।