स्वच्छ संकल्प से स्वच्छ सिद्धि

कंचन शर्मा

लेखिका, स्वतंत्र पत्रकार हैं

इस वर्ष अपनी यूरोप यात्रा में यूरोप को बेहद साफ-सुथरा व स्वच्छ देखकर जहां अपार प्रसन्नता हुई, वहीं अपने भारत में फैली अस्वच्छता को लेकर घोर निराशा भी महसूस हुई। यूरोप में सड़क, भवन, बागीचे, नालियां, तालाब, नदियां, गलियां, पुल, बाजार एक भी जगह गंदगी देखने को नहीं मिली। यही नहीं, खुले में शौच करना तो दूर, बसों में भी गंदगी नहीं फैला सकते। हर बस में टॉयलेट व डस्टबिन की सुविधा थी। यहां तक कि कुत्ते पालने के शौकीन विदेशियों को मैंने रास्ते में कुत्ते द्वारा की गई पॉटी को पोलिथीन से उठाकर डस्टबिन में डालते हुए देखा, जो मेरे लिए विस्मयकारी था। क्या भारत का एक आम नागरिक इस तरह की स्वच्छता के उच्च शिखर पर पहुंच सकता है! आजादी के 70 वर्षों में एक ओर जहां हमारे देश ने ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा, अर्थ, टेक्नोलॉजी, मेडिकल साइंस, खेल आदि क्षेत्रों में नए कीर्तिमान स्थापित किए, वहीं दूसरी ओर देश प्लास्टिक, कचरा, बोतलें, इलेक्ट्रॉनिक कचरा, नदियों के प्रदूषण से लेकर पान की पीक व खुले में शौच जैसी आदतों से त्रस्त रहा। सोचती थी क्या कोई होगा जो भारतीय समाज से इस गंदगी को उखाड़ फेंकेगा। सुकून मिला जब 29 जुलाई, 2017 को अपने ‘मन की बात’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘गंदगी भारत छोड़ो’ का संकल्प ही नहीं लिया, वरन आज जन-जन इस अभियान से जुड़ चुका है। यही नहीं, खुले में शौच से मुक्ति अभियान ने भी इस देश से गंदगी का सफाया किया है। गांधी जी के जीवन दर्शन में स्वच्छता के बाहरी और आंतरिक दोनों पक्षों का अटूट संबंध था। उनके स्वच्छता बोध का परम लक्ष्य मनुष्य का हृदयांतरण था, जिसमें द्वेष, हिंसा, लोभ आदि का कोई स्थान न हो। उन्होंने आंतरिक सफाई के लिए अपने पूरे जीवन को ही प्रयोगशाला बना डाला। यहां तक की वह अपने कपड़े, घर बाहर से लेकर मल-मूत्र भी साफ करने से परहेज न करते थे। वैसे भी सफाई का मतलब तड़क-भड़क पोशाक पहनना, भव्य मकान में रहना नहीं, बल्कि वास्तव में इसका बहुत व्यापक अर्थ है। स्वच्छ आवास, विलासिता पूर्ण रहन-सहन के लिए हम नदी, पहाड़, जंगल सबकी सफाई करते जा रहे हैं।

हमारी जीवनशैली ऐसी होनी चाहिए जो प्रकृति के साथ ताल-मेल बिठा सके। स्वच्छता प्रकृति की संगति में सन्निहित होती है। आज आवश्यकता आविष्कार की जननी नहीं। अपितु आविष्कार आवश्यकता का जनक बन चुका है। भव्यता के लिए प्रकृति विरोधी कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। यही नहीं, लोग नहाने-धोने, साफ-सुथरे कपड़े पहनने व अपने घर को स्वच्छ रखने को ही स्वच्छता समझते हैं, जबकि स्वच्छता पर बात करते हुए कबीरदास ने कहा है, ‘नहाए-धोए क्या भया जो मन मैल न जाए, मीन सदा जल में रहे धोए वास न जाए’। हमारे देश में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों को जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण माना गया है। पर आज धर्म और मोक्ष को समाज ने हाशिए पर पहुंचा दिया है और पूरा देश पश्चिम की तर्ज पर अर्थ और काम के पीछे भाग रहा है। इसके फलस्वरूप समाज भ्रष्टाचार, अस्वच्छता, प्रदूषण, बलात्कार, हत्या जैसी नाना प्रकार की व्याधियों का शिकार बनता जा रहा है। जबकि आंतरिक व बाहरी स्वच्छता से खुशहाली और तरक्की मिलती है। समाज आज विकृतियों और व्याधियों की स्थली बनता जा रहा है। ऐसे में ‘स्वच्छता संकल्प से स्वच्छ सिद्धि’ संकल्प में समाज के प्रबुद्ध लोगों, बुद्धिजीवियों, संत-महात्माओं, अध्यापकों को देश की जनता को बाह्य स्वच्छता के साथ अंतः स्वच्छता के लिए भी जागरूक करना होगा। स्वच्छ भारत अभियान में बाह्य व अंतः स्वच्छता के बोध को आत्मसात कर क्रियान्वित करना होगा। भारत को स्वच्छ बनाने के लिए जन-जन को इस संकल्प को आत्मसात करने की आवश्यकता है। हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि मैं स्वच्छता के लिए क्या नहीं कर सकता! बस, एक संकल्प व उसके क्रियान्वयन की आवश्यकता है।

हमारे विज्ञापनों और धारावाहिकों में दिखाई जाने वाली सफल व दिलकश हस्तियों को कभी कूड़ा उठाते, आंगन बुहारते या पालतू कुत्ते-बिल्लियों का मल-मूत्र साफ करते नहीं दिखाया जाता और इसी के चलते एक बड़े वर्ग के लिए यह कार्य हो जाता है। जबकि हमारा धर्म, हमारी मान्यता यही कहती है कि जहां स्वच्छता है, वहीं लक्ष्मी विराजती है। लक्ष्मी अपने घर में ही क्यों, पूरे देश में विराजेगी, तभी तो भारत पुनः सोने की चिडि़या कहलाएगा। स्वच्छता के इस अभियान में आध्यात्मिक, नैतिक, मानसिक, शारीरिक, अंतः व बाह्य समाज की स्वच्छता पर भी बल देना होगा। अंतःकरण की धूल झड़ जाती है, तो बाह्य स्वतः  स्वच्छ हो जाता है। हमारे भीतर जो उत्तम क्षमताएं हैं, उन्हें उभारने की भी आवश्यकता है। वरना यह खेल यूं ही चलता रहेगा जैसे पहले हम गंगा को प्रदूषित करेंगे और फिर उसकी सफाई का अभियान चलाएंगे। इसलिए जरूरी है कि आज समाज की नैतिक, मानसिक, आध्यात्मिक व शारीरिक स्वच्छता पर भी बल देना होगा। ऐसी सोच अपनाकर ही हम जल, जंगल, जमीन, नदी, पहाड़, सागर, पशु-पक्षी जैसी नयामतों को बचा सकेंगे, क्योंकि इनका बचा रहना मनुष्य जाति के बचे रहने के लिए भी अपरिहार्य है। यही सोच व इससे फलित कर्म देश को प्रदूषण रहित व स्वच्छ बनाकर भारत को शक्तिशाली अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित कर सकती है। संकल्प स्वच्छ होगा, तभी तो स्वच्छ सिद्धी होगी।