अगर मोदी वास्तव में ‘प्रेजिडेंशियल’ होते

भानु धमीजा
सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’
लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं

हम अभी देख रहे हैं कि कैसे राष्ट्रपति ट्रंप की शरारतें राष्ट्रपति प्रणाली में सिरे नहीं चढ़ पा रही हैं। मोदी हमारे पहले ‘प्रेजिडेंशियल’ प्रधानमंत्री नहीं हैं। हमारी स्वतंत्रता से ही प्रधानमंत्रियों को देश के ‘शासकों’ के तौर पर देखा गया है। 17 वर्षों तक जवाहरलाल नेहरू एक निर्विवाद नेता थे, जो राज्य सरकारों को बना या गिरा सकते थे, और संसद में कोई भी कानून पास करवा सकते थे। इंदिरा गांधी ने 15 वर्ष के कार्यकाल में से अधिकतर समय सुप्रीमो की तरह शासन किया। उनका लगाया गया आपातकाल निरंकुश शासन का प्रतिमान है…

बहुत से भारतीय मानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी भारत पर ऐसे शासन कर रहे हैं जैसे वह अमरीकी राष्ट्रपति प्रणाली के अंतर्गत राष्ट्रपति हों। यह धारणा बिलकुल गलत है। इसमें संदेह नहीं कि मोदी ने राष्ट्रपति प्रणाली की कई प्रथाएं कॉपी कर ली हैं, खासकर अपने चुनाव प्रचार के अंदाज में, परंतु शासन के संबंध में वह उस प्रणाली के प्रसिद्ध मौलिक ‘नियंत्रणों व संतुलनों’ से पूरी तरह मुक्त हैं। इसने भारत को दोहरी मुश्किल में डाल दिया है। एक अमरीकी राष्ट्रपति जैसे प्रधानमंत्री जो देश भर में लोकलुभावन व्यवहार कर सकते हैं परंतु बिलकुल निरंकुश हैं।

राष्ट्रपति प्रणाली में नियंत्रण और संतुलन

राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता और देश के संविधान व राज्य सरकारों पर नियंत्रण एक प्रधानमंत्री को अमरीकी राष्ट्रपति जैसा नहीं बनाते। दरअसल इसी खतरनाक मिश्रण से बचने के लिए ही अमरीका के निर्माताओं ने राष्ट्रपति प्रणाली का आविष्कार किया था। उन्हें डर था कि समूचे राष्ट्र द्वारा सीधे निर्वाचित लोकप्रिय नेता तानाशाह बन सकता है। उन्होंने अपने संविधान में विधायिका व अन्य बहुत से नियंत्रणों का एक तरीका तैयार किया जो राष्ट्रपति के अधिकार से बाहर हो। परिणामस्वरूप अमरीका के इतिहास में कोई राष्ट्रपति निरंकुश शासन करने में सफल नहीं हुआ है। हम अभी देख रहे हैं कि कैसे राष्ट्रपति ट्रंप की शरारतें उस प्रणाली में सिरे नहीं चढ़ पा रही हैं। मोदी हमारे पहले ‘प्रेजिडेंशियल’ प्रधानमंत्री नहीं हैं। हमारी स्वतंत्रता से ही प्रधानमंत्रियों को देश के ‘शासकों’ के तौर पर देखा गया है। 17 वर्षों तक जवाहरलाल नेहरू एक निर्विवाद नेता थे, जो राज्य सरकारों को बना या गिरा सकते थे, और संसद में कोई भी कानून पास करवा सकते थे। इंदिरा गांधी ने 15 वर्ष के कार्यकाल में से अधिकतर समय सुप्रीमो की तरह शासन किया। उनका लगाया गया आपातकाल निरंकुश शासन का प्रतिमान है।

‘‘हमारी सरकार की प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिसमें नेता सत्ता में बने रहने के बजाय शासन पर ध्यान केंद्रित कर सकें।’’

– शशि थरूर

संयुक्त राज्य भारत

भारतीय भूल जाते हैं कि बेलगाम प्रधानमंत्री तैयार करना भारत की शासन प्रणाली के स्वभाव में है। अपने ताजा लेख ‘दि प्रेजिडेंशियल प्राइम मिनिस्टर नरेंद्र मोदी’ (18 सितंबर, 2017 को दि प्रिंट में प्रकाशित), में अश्वनी कुमार कहते हैं कि मोदी ‘‘एक नए मिश्रित राजनीतिक प्राणी’’ हैं। वह इसका आधार यह देते हैं कि किस प्रकार मोदी ने 543 लोकसभा क्षेत्रों को एक राष्ट्रीय चुनाव क्षेत्र में बदल दिया है, और वह किस प्रकार मंत्रालयों, प्रशासनिक विभागों और नियामक प्रक्रियाओं को मनमर्जी से पुनर्गठित कर रहे हैं। कुमार कहते हैं, ‘‘जर्मन दर्शनशास्त्री नीत्ज़े जैसी सत्ता की इच्छा से भरपूर मोदी विधायी बहसों में तिरस्कार, बकबक, और विलापों की परवाह नहीं करते।’’ ठीक ऐसी ही अनियंत्रित शक्ति से बचने के लिए, भारत के कई अग्रणी विचारकों — बीआर अंबेडकर से लेकर शशि थरूर तक — ने राष्ट्रपति प्रणाली, या कम से कम इसकी प्रमुख विशेषताएं, अपनाने की वकालत की है। अंबेडकर ने भारत की संविधान सभा को प्रस्ताव दिया था कि देश का नाम ‘संयुक्त राज्य भारत’ हो, जिसकी सरकार की प्रणाली कई प्रकार से अमरीकी प्रणाली के समान हो। ‘‘ब्रिटिश प्रकार की कार्यपालिका,’’ उन्होंने लिखा, ‘‘भारत के अल्पसंख्यकों के जीवन, स्वतंत्रता और सुख की तलाश के प्रति खतरे से परिपूर्ण होगी।’’ राष्ट्रपति प्रणाली के लिए थरूर का सुझाव जाना-पहचाना है। वह कहते हैं कि ‘‘हमारी सरकार की प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिसमें नेता सत्ता में बने रहने के बजाय शासन पर ध्यान केंद्रित कर सकें।’’ केएम मुंशी, जेआरडी टाटा, नानी पालकीवाला, खुशवंत सिंह, एलके आडवाणी, अरुण शौरी, राजीव प्रताप रूडी, और अटल बिहारी वाजपेयी – यह सब यही सुझाव दे चुके हैं कि भारत को राष्ट्रपति प्रणाली पर विचार करना चाहिए।

विधायिका को मजबूती

भारत के लिए राष्ट्रपति प्रणाली के लाभ आज से ज्यादा स्पष्ट कभी नहीं रहे। आज देश को इसकी ‘विविधता में एकता’ की रक्षा के लिए पहले से कहीं अधिक अच्छी प्रणाली की आवश्यकता है। यह केवल राष्ट्रीय प्रभुत्व और स्थानीय स्वायत्तता के मिश्रण से ही किया जा सकता है, जिसकी पेशकश राष्ट्रपति प्रणाली करती है। भारत को तुरंत एक मजबूत विधायिका की आवश्यकता है। यह भी तभी संभव है जब जनप्रतिनिधियों को अमरीकी प्रणाली की तरह एकल तौर पर शक्ति संपन्न किया जाए। हमें धरातल पर अधिक प्रभावी शासन की सख्त जरूरत है। यह भी केवल तभी होगा जब प्रत्यक्ष चुनावों के माध्यम से स्थानीय सरकारें जनता के प्रति उत्तरदायी बनाई जाएं। और इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत को सरकार की सख्त निगरानी की नितांत आवश्यकता है। यह भी तभी संभव है जब विधायी सदस्य सरकार के नियंत्रण के अधीन न हों, जैसा राष्ट्रपति प्रणाली में होता है। अमरीकी राष्ट्रपति विश्व भर की कार्यपालिकाओं में सबसे अधिक प्रतिबंधित पद है। अमरीका के निर्माताओं ने एकल-व्यक्ति आधारित कार्यपालिका को संपूर्ण शक्तियां देने के लिए नहीं बनाया बल्कि समस्त जिम्मेदारियां सौंपने के लिए। जब जेम्स विल्सन, अमरीकी राष्ट्रपति पद के पितामह, ने पहली बार एक व्यक्ति की कार्यपालिका का प्रस्ताव दिया, तो उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि पद को ‘‘ऊर्जा, तेजी और उत्तरदायित्व’’ की आवश्यकता थी, न कि समस्त अधिकारों की। उन्होंने कहा, हमें ब्रिटिश-प्रकार की कैबिनेट नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि यह ‘‘गलत आचरण रोकने के बजाय उन्हें ढांपती है।’’ अमरीकी संविधान के रचनाकारों ने इस एक व्यक्ति आधारित कार्यपालिका पर अभूतपूर्व नियंत्रण रखे। प्रारंभिक नियंत्रण एक स्वतंत्र विधायिका थी, जिसे काबू करना तो छोडि़ए राष्ट्रपति यानी एकल कार्यकारी उसमें बैठ भी नहीं सकता।

अगर मोदी राष्ट्रपति प्रणाली के अंतर्गत शासन कर रहे होते, तो वह जो अभी करते हैं उसका 80 प्रतिशत करने के काबिल ही नहीं होते। वह राज्य सरकारें बना या उन्हें भंग नहीं कर पाते। वह राज्य चुनावों में स्टार प्रचारक होते, परंतु उनका इस पर कोई नियंत्रण नहीं होता कि एक राज्य में कौन गवर्नर या मुख्यमंत्री होगा, या राज्य सरकारों द्वारा क्या कानून पास होंगे। मोदी केंद्रीय सरकार की आवश्यकता अनुसार कानून बनाने में भी सक्षम नहीं होते।

राष्ट्रपति प्रणाली में मोदी का शासन

ऐसे ढांचागत नियंत्रणों के अभाव में कोई आश्चर्य नहीं कि विभिन्न भारतीय प्रधानमंत्री नियमित रूप से ‘शासक’ बन चुके हैं। अगर मोदी राष्ट्रपति प्रणाली के अंतर्गत शासन कर रहे होते, तो वह जो अभी करते हैं उसका 80 प्रतिशत करने के काबिल ही नहीं होते। वह राज्य सरकारें बना या उन्हें भंग नहीं कर पाते। वह राज्य चुनावों में स्टार प्रचारक होते, परंतु उनका इस पर कोई नियंत्रण नहीं होता कि एक राज्य में कौन गवर्नर या मुख्यमंत्री होगा, या राज्य सरकारों द्वारा क्या कानून पास होंगे। मोदी केंद्रीय सरकार की आवश्यकता अनुसार कानून बनाने में भी सक्षम नहीं होते। देश की विधायिका को जनता द्वारा स्वतंत्रतापूर्वक और प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित जनप्रतिनिधि और सीनेटर चलाते। मोदी संसद को न हुक्म दे पाते, न भंग कर सकते। उनके पास वीटो की शक्ति होती, लेकिन किसी विधेयक के पीछे भारी समर्थन हो तो उनकी वीटो रद्द की जा सकती। राष्ट्रपति प्रणाली के तहत, विधायिका के अनुमोदन के बगैर मोदी अपनी ही कैबिनेट भी नियुक्त नहीं कर पाते। सभी कैबिनेट मंत्रियों — विदेशी मंत्री, गृह मंत्री, रक्षा मंत्री और वित्त मंत्री — की नियुक्ति संसद में जन सुनवाइयों के जरिए होती। इसलिए जब एक भारतीय प्रधानमंत्री हुक्मराना व्यवहार करने लगे हमें अवश्य पूछना चाहिए कि क्या यह देश के हित में है। मोदी बेशक ‘‘गैर विधायी एकतरफा कार्यकारी आदेशों’’ के माध्यम से शासन कर रहे होंगे,’’ या ‘‘संसदीय प्रणाली के गूढ़ परिवर्तन’’ में व्यस्त होंगे, जैसा अश्वनी कुमार कहते हैं। परंतु वह भारत के इतिहास में अद्वितीय नहीं हैं। न ही वह हमारी शासन प्रणाली को आगामी पीढि़यों के लिए बेहतर बना रहे हैं। हम जो राष्ट्रपति प्रणाली के विषय में जानते हैं, मोदी हमें झांसा नहीं दे रहे, जैसा कुमार ने कहा। वह हमें केवल देश के भविष्य के विषय में और अधिक चिंतित कर रहे हैं।

साभार : दि क्विंट

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