आत्म पुराण

अग्नि की तरह लाल, जल की तरह बहने वाले, भूमि के सदृश्य कृष्ण वर्ण जितने भी पदार्थ हैं, उनसे भी यह आत्मा विलक्षण है। यह आत्मा छिद्र रहित है, इससे छिद्रयुक्त आकाश से भी विलक्षण है। यह मीठे-खट्टे आदि रसों से रहित है, इससे मधुर रस वाले जल से विलक्षण है। यह गंद से भी रहित है, इस कारण गंध वालों पृथ्वी से भी विल क्षण है। याज्ञवल्क्य की सर्वज्ञता युक्त बुद्धि और आत्मज्ञान को देखकर गार्गी ने उसे नमस्कार किया और सभी में उपस्थित सभी विद्वानों को संबोधन करके कहने लगी- हे सर्व ब्राह्मणों! तुम्हारी सभा में मैं पक्षपात रहित होकर यह कहती हूं कि यद्यपि जगत में हमने बहुत प्रकार के पुरुष देखे हैं, तो भी याज्ञवल्क्य के समान कोई देखने में नहीं आया। अनेक पुरुष हमने धवल गृह के समान देखे हैं, जो दूर से रमणीक लगते हैं पर भीतर से जड़ ही होते हैं। अनेक पुरुष भारवाही बैल के समान देखे हैं, जो शास्त्रों को पढ़कर उनका बोझा तो ढोते हैं, दूसरों को उनका उपदेश कर देते हैं, पर स्वयं कोई प्रगति नहीं करते, अनेक शुक-सारिका जैसे देखे हैं जो सुंदर शब्द बोलते हैं, पर उनका तात्पर्य नहीं समझते।  अनेक पुरुष विशाल नेत्रों के होते हुए भी अंधों के समान देखे हैं, जो ज्ञान प्राप्त करके भी अत्यंत समीपवर्ती आत्मा को नहीं देख पाते। हमने अनेक पुरुष चित्र लिखित मूर्ति के समान देखे हैं, जो देखने में बहुत सुंदर गुणी जान पड़ते हैं, पर किसी उपयोगी कार्य के अयोग्य होते हैं। अनेक पुरुष कुपथ्य भोजन के समान देखे हैं, जो आरंभ में तो बहुत स्वादिष्ट और रुचिकर प्रतीत होता है, पर उसका परिणाम रोग को बढ़ाने वाला होता है। ऐसे पुरुष सभा में सत्य अर्थ का किञ्चित उपदेश करके अंत में एकांत असत्य अर्थ का उपदेश करने वाले सिद्ध होते हैं। हे ब्राह्मणों! इस लोक में कई पुरुष व्याघ्र के समान देखे हैं, जो शरीर, मन, वाणी से सदा दूसरों की हिंसा करते रहते हैं— अनेक पुरुष मत्त बानर के समान अत्यंत चंचल देखे हैं, जो अज्ञान रूपी मदिरा पीकर शास्त्रों के विरुद्ध चेष्टा करते रहते हैं। फिर हमने अनेक पुरुष काम रूपी शत्रु के वश में अनेक क्रोध रूपी शत्रु के वश में, अनेक लोभ रूपी शत्रु के वश में देखे हैं। हे ब्राह्मणों! वेदों तथा वेदाङ्गों के जानने वाले जो देवता पुरुष हैं वे भी सत्-रज-तम तीनों गुणों से युक्त रहते हैं और उनमें कोई विलक्षणता दिखाई नहीं पड़ती। इस लोक में अनेक पुरुष  व्याकरण, मीमांसा, न्याय, धर्म शास्त्र आदि को पढ़कर उन विषयों में कुशल बन जाते हैं, पर अद्वितीय ब्रह्म और आत्मा का उन्हें कोई पता नहीं होता। जिनको वेदांत शास्त्र का ज्ञान है, पर वह भी समग्र नहीं होता। जिन पुरुषों को समग्र ज्ञान है वे भी काम क्रोध के कारण मूल अज्ञान का निवारण कर सकने में समर्थ नहीं होते। ऐसे पुरुष भुने हुए धान के समान होते हैं, जो देखने में ठीक लगने पर भी फलदायक नहीं होते। काम, क्रोध से भी बड़ा दुर्गुण अहंकार का है। जैसे अपराधियों के बंधन गृह में वे स्तंभों से बंधे रहते हैं, पर उनमें मध्य स्तंभ ही मुख्य होता है और कोणों के स्तंभ गौण होते हैं। अज्ञानी जीवों के इस बंधन-गृह में भी काम-क्रोध आदि के गौण स्तंभ होते हैं और मध्य का अहंकार का स्तंभ मुख्य होता है। जब तक मुख्य स्तंभ स्थिर रहता है तब तक बंदीगृह का नाश नहीं हो सकता। यह अहंकार सब जीवों में पाया जाता है। यहां जो अनेक विद्वान एकत्रित हैं, उनमें से अनेक ब्राह्मण काम, क्रोध, मोह में से एक, दो या तीनों दोषों से मुक्त हैं, किंतु अहंकार से मुक्त मैं किसी को नहीं देखती। इससे मानना पड़ता है कि अहंकार सर्वत्र व्याप्त है और यह बड़ा दुर्विज्ञेय भी है। अहंकारी पुरुष सब प्राणियों की अवज्ञा भी करता है।