उम्मीदों भरी उम्मीदवारी

हिमाचल में उम्मीदों से भारी उम्मीदवारी को देखते हुए चुनाव की रेंज का हिसाब लगाया जा सकता है। राजनीतिक आरोहण में मुद्दों का हिसाब जो भी होगा, लेकिन इससे पहले टिकट खिड़की पर हिमाचली आचरण कतार में लगा है। यह दीगर है कि सियासी पहेलियों में प्रमुख पार्टियों का अभिप्राय अभी पर्दे में है, फिर भी राजनीति का सूचकांक आकर्षित कर रहा है। इसके कई उदाहरण टिकट मांगते डाक्टरों, प्रशासनिक अधिकारियों या सेवानिवृत्त हो चुके लोगों के हवाले से मिलते हैं। दूसरी ओर राजनीति में उम्र की पाबंदी न होने के कारण रिटायर्ड होने का सवाल ही उत्पन्न नहीं होता। परिपक्वता का तकाजा किस उम्र में बेहतर होगा, इस पर सियासी कयास नहीं लगाया जा सकता। बहरहाल उम्मीदवारी की सतह पर कांग्रेसी उत्साह का पता तीन सौ से ऊपर लोगों के आवेदन से चलता है कि राजनीतिक मर्ज के कितने मरीज हो सकते हैं। राजनीति के सामर्थ्य में भाजपा की कसरतें भी एक साथ कई कार्यकर्ताओं को उम्मीदवार बनने का अवसर दिखाती रही हैं और जब बात चुनाव में उतरने की होगी, तो महत्त्वाकांक्षा की सरहदें भी तय होंगी। ऐसे में आम मतदाता की राय से उम्मीदवार तय करना या प्रत्याशी की क्षमता से वोटर को परिचित करा पाना असंभव है। अमूमन मतदाता के बौद्धिक कौशल के बजाय उम्मीदवारी की खामियों से यह तय होता है कि किसे चुनने का कम नुकसान है। खास तौर पर जहां जातियों के आधार पर समीकरणों का मुकाबला होता है, वहां योग्यता व दक्षता को परखने का कोई अर्थ नहीं रहता। इसलिए हिमाचल में एक तीसरा पक्ष तैयार हो रहा है, जो आरक्षण के अलावा अपने उच्च पद तक पहुंचने के कारण दक्षता की दुहाई देता है। खास तौर पर कबायली इलाकों में उम्मीदवारी के स्तर पर अधिकारी रहे लोगों की आमद का बढ़ना, एक शुभ संकेत माना जा सकता है। दूसरी ओर सरकारी क्षेत्र में पल रही उम्मीदवारी को हम राज्य के हित में निष्पक्ष कैसे मान लें। विडंबना यह भी है कि हिमाचल में कर्मचारी राजनीति के वर्तमान स्तर में राज्य की उम्मीदों के बजाय दलगत संभावनाएं हावी हो रही हैं। मूल उद्देश्यों से भटकती कर्मचारी राजनीति के कारण राज्य के दायित्व को चोट पहुंच रही है, तो पार्टियों का अदृश्य काडर सरकारी क्षेत्र की सफलता में अवरोधक बन रहा है। अपने-अपने बयान कक्ष में बैठकर कर्मचारी नेता जो साबित करने की कोशिश प्रायः करते रहे हैं, उससे सरकारी कामकाज की परिभाषा, भाषा और मर्यादा पर सीधा असर पड़ने लगा है। हिमाचल में राजनीतिक आरोहण का एक ऐसा मार्ग भी प्रशस्त हो रहा है, जहां सियासी मिलकीयत पैसों से तोली जा रही है। यानी कि राजनीति के प्रवेश द्वार पर सेठ-साहूकारों की दस्तक की खनक को भी समझना होगा। समाजसेवा के नाम पर सियासी तिजोरी भरने की महत्त्वाकांक्षा हिमाचल को खिलाड़ी बना रही है। चुनावी महफिल में तिलक और ताज की अभिलाषा में कई हिमाचली अन्य राज्यों में कमा कर लौट रहे हैं, तो इस आगमन के रिश्ते को भी समझना होगा। हिमाचल की सियासी समझ को आज तक हुए चुनावों के आलोक में देखें, तो तयशुदा अंदाज के बजाय मतदाताओं ने खुद नए रिकार्ड बनाए और मिटाए भी। नेताओं को प्रदर्शन की सीढि़यां सौंपी, तो कई बार जातीय आधार भी खिसकाए। यहां सिद्धांतों के सफर के बजाय जागरूकता के प्रदर्शन ने हमेशा हुकूमत की, इसलिए राष्ट्रीय नीतियां बनाकर भी शांता कुमार सरीखे नेताओं को सबक दिए गए, तो बढ़ते कर्ज के बावजूद सरकारों से जनापेक्षाएं बढ़ती गईं। निजी संबंधों की ढाल पर सियासत चुनने की कशमकश में उम्मीदवारी की शर्तें तय नहीं हो सकतीं, फिर भी इस बार अपने सर्वेक्षण के प्रारूप में राजनीतिक भलमनसाहत के कितने सबूत जुटाने में भाजपा कामयाब हो पाती है, इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं।