कुलिंदों ने अपनाई ‘ गणतंत्र शासन प्रणाली ’

कुलिंदों की ‘गणतंत्र शासन’ प्रणाली थी। उनकी एक केंद्रीय सभा होती थी। उस सभा के सदस्य राजा कहलाते थे और सभापति महाराजा। इससे पता चलता है कि राजा या महाराजा की उपाधि किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं, अपितु गणराज्य के महत्त्वपूर्ण स्थानों पर कार्य करने वालों के लिए थी…

हिमाचल के प्राचीन जनपद

अमोघ के अतिरिक्त कुणिंद जाति के छतेश्वर नामक राजा की तांबे की मुद्रा मिलती है। उसके अग्रभाग में त्रिशूल लिए शिव की मूर्ति खड़ी है। ग्रैयरसन ने उस पर ‘भागवत छत्रेश्वर महामन’ पढ़ा है। पृष्ठ भाग में भृग, नंदिपाद, वृक्ष तथा सुमेरू पर्वत आदि की आकृति पाई जाती है, यह अमोघभूति से बाद की हैं। छत्रेश्वर की मुद्राओं पर एक ओर शिव त्रिशूल लिए खड़ा अंकित है। बाद की मुद्राओं पर कुलिंद राजाओं के नाम मिलते हैं। उन पर शिव और कार्तिकेय की आकृतियां हैं। इससे यह प्रकट होता है कि कुलिंद जन दूसरी शताब्दी में शैव थे। इनकी ताम्र मुद्रा साधारणतयः जनपद के भीतर ही चलती थी। इन पर लिखे ब्राह्मी लेखों से पता चलता है कि यह राज्य की मान्य लिपि रही होगी। चांदी की मुद्राओं पर, जो अधिकांश जनपद से बाहर चलती थीं, खरोष्ठी लिपि में लिखा मिलता है। कुलिंदों की चांदी की मुद्राओं पर लिखी भाषा में ऐसा भी लगता है कि किस प्रकार एक भारतीय राजा ने भारतीय यूनानी चांदी की मुद्राओं का मंडी में मुकाबला करने का प्रयत्न किया। अमोघभूति के पश्चात शकों और हूणों ने दक्षिण की ओर से कुलिंदों पर आक्रमण भी किए। कुलिंदों ने पंजाब के योद्धाओं और अर्जुनायन के साथ मिलकर कुषाण राज्य को नष्ट करने के लिए एक दृढ़ संघ बनाया था। इसमें वे सफल भी हुए। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वे बड़े वीर थे। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद में स्तंभ लेख में कुलिंदों का नाम नहीं मिलता। इससे प्रतीत होता है कि यह जनपद 350 ईस्वी से पूर्व ही खत्म हो चुका होगा। कुलिंदों की ‘गणतंत्र शासन’ प्रणाली थी। उनकी एक केंद्रीय सभा होती थी। उस सभा के सदस्य राजा कहलाते थे और सभापति महाराजा। इससे पता चलता है कि राजा या महाराजा की उपाधि किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं, अपितु गणराज्य के महत्त्वपूर्ण स्थानों पर कार्य करने वालों के लिए थी। इस प्रकार गढ़वाल से लेकर कांगड़ा तथा जम्मू तक का पर्वतीय प्रदेश छोटे-बड़े जनपदों में बंटा हुआ था। ये जनपद कब अस्तित्व में आए, निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता, परंतु इतना जरूर है कि महाभारत काल तक यह स्थापित हो चुके थे। महाभारत में इन सभी का वर्णन यत्र-तत्र पाया जाता है। सभा पर्व में लिखा है कि जब अर्जुन दिग्विजय पर उत्तर की ओर निकला तो उसने पहले कालकूट (संभवतः कालका और पास की पहाडि़यों) और कुलिंदों के देशों पर विजय पाई। इसी विजय यात्रा में उसके त्रिगर्त इत्यादि देशों के भी जीतने का वर्णन मिलता है। ये पर्वतीय राजा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी अपने-अपने देश से भेंट लेकर आए थे।