(आशीष बहल, चुवाड़ी, चंबा )
राह चले, मैले-कुचैले कपड़े पहने,
मासूम सा चेहरा, मुझसे पूछ बैठा,
क्यों बाबू जी क्या कोई त्योहार सजा है?
रंग-बिरंगे फूल खिले हैं, जगमग दीप जगे हैं,
सजे हैं शहर-चौबारे, हर गली शोर सा मचा है, क्यों बाबू जी क्या कोई त्योहार सजा है?
भूखा हूं, तन भी नंगा है, ढूंढ रहा हूं,
घर ऐसा जहां गरीबों का भी मेला लगा है,
बाबू जी, पता है तो बताइए
क्या कहीं दाल-चावल का भी लंगर लगा है,
क्यों बाबू जी क्या कोई त्योहार सजा है?
सुना है, दिवाली खुशियों के रंग लाई है,
बहन घर में भूखी है, दे दो कोई रोटी सूखी है,
घी तुम दीयों में जलाओ, पटाखे लाख चलाओ,
खा लो मिठाइयां, बांट लो तुम तोहफे हजार,
हर मन, दिल में मधुर गान बजा है,
क्यों बाबू जी क्या कोई त्योहार सजा है?
मिल जाएगी रोटी, मिट जाएगी भूख रोज की,
मां ने आज फिर खाली बरतन चढ़ाए,
बताओ कोई ऐसी जगह जहां घी के दीए नहीं, दाल-रोटी के थाल सजाए हैं,
गरीब की झोंपड़ी में तो आज,
दो वक्त की रोटी का सवाल खड़ा है,
खा लूं मैं जी भर के, पकवान जहां मनभावन,
क्यों बाबू जी क्या कोई त्योहार सजा है?