तकनीकी शिक्षा की दयनीय हालत

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

हमें शिक्षा का प्रारूप दोबारा से इस तरह बनाना चाहिए कि छात्र भविष्य की कारपोरेट जरूरतों के मुताबिक अपने कामों को अंजाम देने में सक्षम हो सकें। छात्रों तथा उनके अभिभावकों, दोनों को समझना चाहिए कि सीखने की प्रक्रिया एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके दौरान हम अपने बारे में कुछ जानते हैं तथा उन अध्यापकों से भी जानते हैं जो प्रोत्साहित करते हैं तथा सृजनशीलता को विशेष महत्त्व देते हैं…

एक ओर बाजार पर घटती विकास दर चोट कर रही है, तो दूसरी ओर इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कालेजों का हृस हो रहा है। यह परिदृश्य व्यथित कर देने वाला है। अब तक 527 कालेज बंद किए जा चुके हैं तथा 800 कालेजों पर बंद होने का खतरा मंडरा रहा है। कई विश्वविद्यालयों में छात्रों का कम प्रवेश हुआ है और उनके द्वारा करवाए जाने वाले कोर्सों में भी कमी आई है। 4,633 कोर्स बंद किए जा रहे हैं। शिक्षा में यह हृस पर्याप्त काम अथवा अवसरों की कमी के कारण नहीं है। साथ ही शिक्षण संस्थानों में हो रहा कम पंजीकरण भी इस कारण से नहीं है। यह हृस स्वतंत्र वातावरण उपलब्ध करवाने के प्रति आश्वस्त करने में सरकारों की विफलता के कारण है। ऐसे स्वतंत्र वातावरण में राज्य की भूमिका केवल गुणवत्ता की देख-रेख करना होता है, जबकि संस्थान की उत्कृष्टत ढंग से संचालन का पक्ष नेपथ्य में चला जाता है। भावी चुनौतियों का वर्तमान परिदृश्य समस्या की जटिलता से देखा जा सकता है। इस समय भारत में 6,214 इंजीनियरिंग और 5,500 प्रबंधन संस्थान हैं। ये भविष्य के इंजीनियरों व प्रबंधकों को प्रशिक्षण देकर तैयार कर रहे हैं। ये कालेज अथवा संस्थान कई तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं। इनमें सबसे बड़ी समस्या प्रशिक्षित व गुणवत्ता वाले शिक्षकों की कमी है। भारतीय प्रबंधन संस्थान तथा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में 40 फीसदी शिक्षकों की कमी चल रही है। अन्य कालेजों व संस्थानों में यह दर इससे भी अधिक है। वे ऐसे शिक्षकों से काम चला रहे हैं, जो पूरी तरह शिक्षित नहीं हैं तथा किसी न किसी तरीके से कक्षाएं चला रहे हैं। ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टीचर्स एजुकेशन से संबद्धता प्राप्त करने के लिए आवश्यक अंक जुटाने की दृष्टि से ऐसा किया जा रहा है।

देखरेख के लिए बनाए गए इस संस्थान की भूमिका इतनी सख्त है कि नियमों की अनदेखी नहीं हो सकती तथा इनके बिना गुणवत्ता में वृद्धि की प्रासंगिकता नहीं रहती। जमीन की अनिवार्यता की शर्त ने राज्यों पर अनावश्यक बोझ डाल दिया है। बड़ी मात्रा में जमीन व्यर्थ हो रही है और कई मामलों में इसका प्रयोग ही नहीं हो पा रहा है। इसी तरह कई अन्य शर्तें जैसे कम्प्यूटरों की संख्या, कक्षाएं तथा बडे़ पुस्तकालय विकसित करना, ऊपर से थोपी जा रही हैं। जब आस-पड़ोस में ही कई कालेज हैं, तो पुस्तकालय तथा कम्प्यूटर प्रयोगशालाओं की सुविधाओं का साझा उपयोग किया जा सकता है, लेकिन नियम यह है कि प्रत्येक संस्थान के पास ये सुविधाएं अलग-अलग अपनी ही होनी चाहिएं। इससे शिक्षण की लागत बढ़ती जा रही है तथा कालेजों व छात्रों दोनों को कठिनाइयां पेश आ रही हैं। इससे किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए कि इसके कारण कई संस्थानों पर बंद होने का खतरा मंडरा रहा है। मेरी नजर में अच्छी शिक्षा के सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णायक कारक तीन हैं ः शिक्षक, पाठ्यक्रम तथा अध्यापन कला। पहला व सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है गुणवत्ता वाले शिक्षकों की उपलब्धतता। कालेजों की कमान ऐसे लोगों के हाथ में होनी चाहिए, जो अध्यापन कार्य व सीखने का काम कर रहे हों, बजाय उन व्यापारिक लोगों के जो ऐसे संस्थानों को वाणिज्यिक संस्थानों में बदल देते हैं। अध्यापन का काम उत्तम व्यवसाय माना जाना चाहिए, चाहे यह निजी क्षेत्र में हो अथवा गैर लाभकारी संस्था के हाथों में। शैक्षणिक कार्यक्रमों को संचालित करने का सबसे बढि़या तरीका क्या हो, इसका निर्णय करने का अधिकार शिक्षकों के हाथ में होना चाहिए। निजी क्षेत्र के अधिकतर संस्थानों में शिक्षकों की भूमिका गौण कर दी गई है। जब मैंने दिल्ली में ‘फोर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट’ शुरू किया, तो मैंने घोषणा की कि मैं सरकार से मान्यता नहीं मानूंगा तथा शिक्षा की मेरी गुणवत्ता ही मेरे कालेज का सर्वोत्तम प्रमाण होना चाहिए। यह जल्द ही एक बड़ा कालेज बन गया तथा एआईसीटीई ने स्वयं ही इसे मान्यता देने की पेशकश की। उसने मुझे काउंसिल के बोर्ड ऑफ स्टडीज का वाइस चेयरमैन बनाने की बात भी कही।

कालेज में नवाचार युक्त कोर्स शुरू किए गए तथा इनके शिक्षण के लिए सर्वोत्तम शिक्षकों की व्यवस्था भी की गई। सफलता का दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण कारक यह है कि पढ़ाया क्या जा रहा है यानी शैक्षणिक कार्यक्रम की सामग्री क्या है। विश्वव्यापी प्रयास करते हुए सामग्री का चयन ऐसे होना चाहिए कि यह सर्वोत्तम व नवीनतम हो। मैंने अपने कार्यक्रम में क्रॉस कल्चरल मैनेजमेंट को शामिल किया, जो कि उस समय किसी भी कालेज में लागू नहीं था। भविष्य में काम की दुनिया में निकलने वाले छात्रों को यह पता होना चाहिए कि अन्य सभ्यताएं व देश कैसे काम करते हैं तथा व्यवहार करते हैं। वैश्विक व्यापार ने इसे अवश्यंभावी बना दिया है। उस समय कोई भी संस्थान ईस्टर्न मैनेजमेंट के बारे में नहीं पढ़ा रहा था। मैंने भारतीय व चीनी प्रणाली को शुरू किया, जिनका आरंभिक उल्लेख चाणक्य के अर्थशास्त्र व चीनी जनरल सन जू की पुस्तक आर्ट ऑफ वार (युद्ध की कला) में मिलता है। भारत में इसका अध्ययन कहीं भी नहीं हो रहा था। इसने मेरे कार्यक्रम को अद्वितीय बना दिया। छात्रों ने भी अपनी प्रणालियां विकसित कीं, उनके बारे में लिखा तथा परिसंवाद किया। उन्होंने इतिहास से अंतःदृष्टि प्राप्त की तथा वर्तमान में उसकी प्रासंगिकता का विश्लेषण किया। यहां तक की कम्प्यूटर एप्लीकेशन की मास्टर डिग्री में भी हमने सॉफ्ट स्किल्स व इतिहास को पढ़ाया। तकनीकी शिक्षा का अन्य संवेदनशील पहलू अध्यापन कला है। पढ़ाने के 101 तरीके हैं तथा इनका प्रयोग भी हो रहा है, लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण है अनुभव तथा स्व-अध्ययन से प्राप्त की गई अंतःदृष्टि। हमने गाइडिड सेल्फ लर्निंग जैसी प्रणाली की खोज की। छात्र अपनी पहल पर उद्योग में जाते थे तथा अध्ययन के बाद रिपोर्ट्स पेश करते थे। इससे उन्होंने टीम वर्क, पहल, नेतृत्व, संचार व सृजनात्मकता के बारे में सीखा। छात्रों को काम की दुनिया का सामना करने को तैयार रहना चाहिए, जिसके लिए पर्याप्त धैर्य व सृजन शक्ति की जरूरत होती है। मैंने देखा कि छात्र अपने प्रयासों से नवाचार के बारे में कुछ भी नहीं सीखते हैं। अच्छे परिणाम देने वाले शिक्षक ही उन्हें गाइड कर रहे थे। सर्वोत्तम अध्यापक वह नहीं है, जिसके पास मात्र डिग्रियां हैं, बल्कि वह है जिसने अपने क्षेत्र में कुछ उपलब्धियां हासिल की हों तथा जिनके पास बेहतर परिणाम देने का अनुभव है। हमें शिक्षा का प्रारूप दोबारा से इस तरह बनाना चाहिए कि छात्र भविष्य की कारपोरेट जरूरतों के मुताबिक अपने कामों को अंजाम देने में सक्षम हो सकें। छात्रों तथा उनके अभिभावकों, दोनों को समझना चाहिए कि सीखने की प्रक्रिया एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके दौरान हम अपने बारे में कुछ जानते हैं तथा उन अध्यापकों से भी जानते हैं जो प्रोत्साहित करते हैं तथा सृजनशीलता को विशेष महत्त्व देते हैं।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com