कुलभूषण उपमन्यु
लेखक, हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं
इस संधि में यह तय हुआ कि लद्दाख की ओर से तिब्बत में कोई भी शरारत नहीं होगी। 1852 में फिर कश्मीर के राजा और दलाईलामा में समझौता हुआ, जिसमें आपसी व्यापार की बारीकियों को सुलझाया गया और सीमा रेखा की असहमतियों को भी दूर किया गया। 1911 से कुछ पहले मंचू शासन के अंतिम भाग में तिब्बत पर मंचू शासकों ने आक्रमण किया और तिब्बत के कुछ क्षेत्रों पर चीनी कब्जा हो गया था। तिब्बत के मध्य भाग तक भारी सैनिक जमाव करके दलाईलामा को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का प्रयास किया। दलाईलामा ने भारतीय सीमा में शरण ली। 1911 में मंचू शासन के ध्वस्त हो जाने के बाद 12 अगस्त, 1912 को गोरखा सरकार की मध्यस्थता में तिब्बत-चीन समझौता हुआ। इसमें चीनियों के पास दाबशी और त्सेलिंग में उपलब्ध हथियारों को तिब्बत सरकार के हवाले करने और चीनी सैनिकों व अफसरों के 15 दिन के भीतर तिब्बत छोड़ कर चले जाने का निर्णय हुआ। 14 दिसंबर, 1912 को नेपाल की ही मध्यस्थता में अगस्त समझौते के आगे की छोटी-मोटी बारीकियों पर बात हुई। इसमें तय हुआ कि जब तक चीनी सैनिक वापस चुंबी घाटी को पार न कर जाएं, तब तक उनके द्वारा समर्पित हथियार सील रहेंगे, जिनकी निगरानी की जिम्मेदारी नेपाली प्रतिनिधियों की होगी। ये सब समझौते तिब्बत ने एक स्वतंत्र देश की हैसियत में किए। इनमें कहीं भी चीनी अधीनता का जिक्र नहीं है। 1271 से 1368 तक चीन मंगोलिया के अधीन हो गया था। उस दौरान तिब्बत पर मंगोल युआन वंश का सीमित नियंत्रण था। इसे चीन तिब्बत पर आधिपत्य के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करता है, लेकिन असल बात तो यह है कि मंगोल शासकों ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था और तिब्बत जो पहले से बौद्ध था, को वे धार्मिक पथ प्रदर्शक मानते थे।
यह संबंध पुरोहित और यजमान जैसा था, जो मंचू के चिंग वंश तक चला रहा। 1911 में मंचू शासन के ध्वस्त हो जाने और चीनी सेनाओं के तिब्बत से बाहर कर दिए जाने के बाद 1913 में दलाईलामा ने तिब्बत में वापस आकर तिब्बत से चीनियों को बाहर खदेड़े जाने और दो खाम में बचे हुए चीनी अवशेषों को बाहर निकालने के प्रयासों की घोषणा की। इसके साथ कुछ जरूरी शासन आदेश भी जारी किए। मंचू शासन के ध्वस्त हो जाने के बाद मंगोलिया भी मंचू शासन से मुक्त हो गया। 13 जनवरी, 1913 को मंगोलिया और तिब्बत ने मैत्री संधि की। इसमें एक-दूसरे के शासन को मान्यता देने के साथ बौद्ध धर्म की बेहतरी के लिए साझा प्रयास करने, बाहरी हमलों में एक-दूसरे की मदद करने और व्यापार समझौते किए। ऐसे समझौते तो एक स्वतंत्र राष्ट्र ही कर सकता है। इसके बाद भी 1949 तक तिब्बत स्वतंत्र देश ही बना रहा। कम्युनिस्ट चीन ने इसके बाद भारी सेना तिब्बत में भेज कर तिब्बत पर कब्जा कर लिया। 40 हजार सैनिक ल्हासा में बिठा कर तिब्बती प्रतिनिधियों से 23 मई, 1951 को समझौते पर दबाव में हस्ताक्षर करवा लिए। इस 17 सूत्री समझौते की 3, 4, 5, 6 धाराओं के तहत तिब्बत को राष्ट्रीय क्षेत्रीय स्वायत्तता देने के प्रावधानों को लागू नहीं किया, धारा-7 के अंतर्गत धार्मिक आजादी के प्रावधानों का उल्लंघन किया। अतः अंतरराष्ट्रीय कानून की नजर में संधि के गंभीर उल्लंघन की स्थिति में यह संधि रद्द ही मानी जाएगी। तिब्बत पर चीनी कब्जा तिब्बत की प्रभुसत्ता पर सैनिक हमला ही माना जाएगा। तिब्बत एक देश के रूप में हमेशा बना रहा है। विदेशी संबंधों के निर्धारण की शक्ति भी वैध शासक दलाईलामा के पास ही रही है। किसी विशेष कालखंड के इतिहास को अपनी सुविधानुसार प्रयोग करके किसी देश की प्रभुसत्ता का हरण जायज नहीं ठहराया जा सकता। भावी इतिहास ही बताएगा कि विश्व बिरादरी में तिब्बत को न्याय कब मिलेगा। हालांकि अब तो महामहिम दलाईलामा तिब्बत के लिए प्रभुसत्ता के बजाय केवल स्वायत्तता पर ही समझौता करने पर सहमत हैं। इस सूरत में चीन को भी अपने 1951 के समझौते के वादों के आधार पर बड़प्पन दिखाते हुए इस मामले पर पुनर्विचार तो करना ही चाहिए।