दिल और दीयों के बीच

राजनीति में आंसू निकल आएं, तो माहौल प्याज के छिलकों सरीखा हो जाएगा। वैसे दिवाली का आलम भी आंख के पर्दे हिला रहा है और बाजार में छाई मायूसी के बीच दुकानदार को मासूम मानें या ग्राहक को बलि का बकरा। दिल और दीयों के बीच ऐसा फासला न पहले राजनीति में था और न ही ग्राहक और दिवाली के बीच दुकानदार कभी इस कद्र पराजित हुआ। हम हर युग को दिवाली के बहाने जीतते आए हैं और इसीलिए दीयों का अर्थ विजय का सारथी बनकर दिखाई देता है। अर्थशास्त्री इस बार की दिवाली में प्रदूषण और मिलावट के अलावा, जीएसटी को भी भांप रहे हैं और उदास मंजर के व्यापार में धनतेरस का शंखनाद भी धीमा है, तो मानना पड़ेगा कि गुल्लक को तोड़कर नोटबंदी भी घर कर गई। बहरहाल हिमाचल में भाजपा की टिकटबंदी ने कुछ बड़े नेताओं की सियासी दौलत लूट ली। हालांकि यह खेल आसान नहीं है, फिर भी भाजपा की कसरतों में ईमानदारी का दीया जल रहा है। इसीलिए रोशनी की सबसे बड़ी दुकान जब पार्टी मुख्यालय पर सजी, तो हिमाचल के कुछ कांग्रेसी दिग्गज भी चकाचौंध में घुस गए। हालांकि रोशनी के वजूद को हासिल करने में गच्चा खा कर कई कांग्रेसी चोटिल हुए, लेकिन घाव की परिपाटी में भाजपा के अपने नेता सिसक उठे हैं। किशन कपूर सरीखे नेताओं का दर्द तो बालीवुड की कोई फिल्म भी बयां नहीं कर पाएगी, लेकिन अमावस्या की राजनीति, इस बार दिवाली की रात में दीयों के जलने के ताप को दिल तक उठाए हुए है। यह अघोषित दिवालियापन है या राजनीति के छलकते समीकरणों का कसूर कि भाजपा के घर में वरिष्ठ सदमे में हैं तो कांग्रेस के बुजुर्ग चहक रहे हैं। कल तक कांग्रेस का सर्वस्व बने विकल्प वीरभद्र सिंह को औकात दिखा रहे थे, तो आज सरकार का चेहरा ओढ़ कर पार्टी चलने लगी है। मंडी रैली ने सुखराम को दरकिनार किया, तो बदलते घटनाक्रम ने प्रचार की सारी सामग्री वीरभद्र सिंह के नाम लिख दी। बेशक दोनों पार्टियों का तंत्र और आंतरिक लोकतंत्र इस वक्त परीक्षा कक्ष में है, लेकिन जो जड़ से उखड़े भाजपा नेता खुद को काबिल बनाना चाहते हैं, स्वतंत्र प्रत्याशी बनने का अवसर पा रहे हैं। ऐसे में दिल जलेंगे या दीये, किसी को मालूम नहीं। हैरानी यह कि कल तक सर्वेक्षणों में मशगूल सोशल मीडिया अपने अनुमानों की आर्थियां सजा चुका है, तो सारा युद्धक उन्माद सिफर हो चुका है। खामोशी घर और घाट पर थी, लेकिन उनका क्या होगा जो न घर के रहे और न ही घाट के। अगर भाजपा से रूठे दिल वाले नेता अलग से ताल ठोंक दें, तो चुनावी दिवाली के दीयों का क्या होगा। राजनीति कल तक जो देख रही थी, उससे भिन्न तकदीर लिख रही है। नए चेहरों का राजनीतिक बाजार में आना शगुन भी हो सकता है, लेकिन दिवाली में कितने पटाखे अनफटे या अनबिके रह जाते हैं, यह केवल जनता की मांग पर निर्भर है। भाजपा ने अपनी दिवाली में मादा दीयों की रौनक में रंगोली की चमक बढ़ा दी है। समाज के लिए यह एक आदर्श के मानिंद नारी शक्ति का जबरदस्त एहसास है। देखना यह है कि कमल के ऊपर कितनी देवी शक्ति विराजित होती है। इस बार चुनावी परीक्षा दिवाली के साथ होने की वजह से नई रोशनी का समावेश कर रही है। जाहिर तौर पर कांग्रेसी घर के बजाय भाजपा के महल में तैयारियां कहीं जोर-शोर से हुई हैं। पिछले कुछ महीनों से चला चुनावी अभियान अब अपने अभिप्राय बता रहा है। जलते दीये में बाती कब तक साथ देती है, इसी अनुमान में दिल धड़कता रहेगा और इस बार चुनाव परिणाम घटते-बढ़ते रक्तचाप की तरह महसूस करना पड़ेगा। बहरहाल दिवाली के बीच राजनीति ने अपने दीयों को भी जलना सिखा दिया है और मतदाता के दिल तक ‘कबूल है कबूल है’ की नारेबाजी में पदिदृश्य अपनी पुरजोर कोशिश में नित नया नजारा देख रहा है। दिवाली के दीये इस बार किस हद तक निर्दलीय साबित होते हैं, यह उस तरह जलने का सबब है जो बिना चिंगारी भी सुलग सकता है।