दिवाली सूचकांक में हिमाचल

त्योहारी मूल्यांकन में हिमाचली रोशनी का बाजार दिखाई दे रहा है, तो इस बहाने समाज की हसरतों को समझा जा सकता है। पिछले कुछ सालों से पर्व का वास्तविक जादूगर बाजार बन गया है और यही निर्णय ले रहा है कि हिमाचल की क्षमता को कितने नजदीक से देखा जाए। हैरत यह नहीं कि दिवाली सूचकांक में त्योहार की लाली बढ़ गई, बल्कि यह है कि किस हद तक समाज अपनी परंपराओं की कहानी बदल रहा है। दिवाली अब सामूहिक या पारिवारिक होने के बजाय निजी प्रदर्शन की एक बड़ी ख्वाहिश है, जो हर सूरत बाजार को खरीदना चाहती है। निश्चित रूप से त्योहारी उमंगों के आनंद में पूरा हिमाचल गोते लगा रहा है और इसी हिसाब से पर्वतीय राज्य का आर्थिक मूल्यांकन होने लगा है। यह बागान की लाली, सरकारी कर्मचारी की खुशहाली और सामाजिक सुरक्षा की बेहतरीन रखवाली का चेहरा है जो दिवाली व अन्य पर्वों को इस तरह मनाने लगा है। कमोबेश हिमाचल के हर हिस्से की तरक्की का एक फलक ऐसे त्योहारों की रसीद में खुद को साबित करता है। दिवाली के मूल्यांकन में हिमाचल का चेहरा खिल रहा है, तो यहां की आर्थिक पृष्ठभूमि में सरकारों की दरियादिली को भी नकारा नहीं जा सकता। आखिर कदम सुख-सुविधाओं की ओर उठ रहे हैं, तो इसका अर्थ उस प्रत्यक्ष या परोक्ष रोजगार या सरकारी लाभ में मिलेगा जो कहीं न कहीं दिहाड़ी लगा रहा है। बाजार ने खुद भी बदलाव किए, तो गांव और शहर के बीच की खाई सिमट गई। प्रदेश में ऐसे अनेक गांव हैं, जो शहरों से बड़ी आर्थिकी तैयार कर रहे हैं। उपभोक्तावाद की जरूरतों की परख में दुकान का आसन अब मॉल के प्रदर्शन में होने लगा है। कमोबेश हर छोटे-बड़े शहर की हट्टी की जगह शोरूम होने की वजह भी यही है कि हिमाचल के हर परिवार से कोई न कोई सरकारी नौकरी, फौज या व्यापार में हाथ आजमा रहा है। सरकारी नौकरी आज इतनी प्रिय क्यों है कि किसी न किसी रूप में युवाओं की कतार वहीं लगी है। महकमों की तरक्की में पैदा होता रोजगार इतना प्रभावशाली है कि बाजार की रौनक बदल दे। हिमाचल के पुरस्कार भी अजब हैं और हकीकत का एक दूसरा पक्ष सरकारी लाभ की परोक्ष खेप से दर्ज होता है। जैसे-जैसे हिमाचल उन्नति कर रहा है, वैसे-वैसे आर्थिक संसाधनों का बंटवारा भी हो रहा है। हर सरकारी ईंट अपने वजन के हिसाब से धन वितरित करते हुए, सामाजिक क्षमता में इजाफा कर रही है और अब कमाने की राजनीतिक लत के अनुरूप ठेकेदारी का रूप निरंतर सक्षम हो रहा है। परिवहन उद्योग के रूप में रोजगार के अलावा, व्यवसाय की अलग छाप छोड़ रहा है। जाहिर है सरकार की न्यूनतम दिहाड़ी भी बाजार को चमकाने की कुव्वत रखती है और इस लिहाज से प्रति व्यक्ति आय का कमाल हिमाचल कर रहा है। बाजार की शान में हिमाचल की उपस्थिति का दिखावा, दिवाली के दीये से कहीं अधिक रोशनी का मोहताज हो गया है। इसलिए त्योहार अब केवल परंपरा बनकर नहीं आते, बल्कि समाज के बीच प्रतिस्पर्धा का दीप जला जाते हैं। उपभोक्तावाद के त्योहार में रंगा हिमाचल साल भर अपने कदम आगे बढ़ा रहा है, तो व्यय की रफ्तार में नए व्यवसायों की मांग को हम एक अवसर मान सकते हैं। दिवाली का मूल्यांकन जिस आर्थिकी में होगा, वहां हिमाचल की क्षमता भी एक पर्व बनती जा रही है।