‘निर्वाचन प्रणाली में बदलाव, लोकतंत्र को खतरा’

भानु धमीजा
सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’
लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं

वर्तमान में ‘फर्स्ट-पास्ट-दि-पोस्ट’ (एफपीटीपी) (first-past-the-post) प्रणाली के तहत जनप्रतिनिधियों का निर्वाचन प्रत्येक उम्मीदवार द्वारा प्राप्त वोटों के आधार पर होता है। इसमें पार्टी जो भी हो, अन्य प्रत्याशियों से अधिक वोट पाने वाला विजयी घोषित होता है। अगर भारत पीआर प्रणाली अपनाता है तो यह हमारे लोकतंत्र की वैधता को गंभीर खतरा होगा। पीआर प्रणाली हमारे समाज को और अधिक बांट देगी। यह अतिवाद बढ़ाएगी। हमारे लोकतंत्र को कुछ चंद हाथों में और अधिक धकेलेगी। सरकारें कमजोर करेगी और उनका प्रभाव घटाएगी। और सबसे बुरा यह कि यह हमारे सांसदों और विधायकों को जनता के प्रति और भी कम उत्तरदायी बना देगी…

भारत जनप्रतिनिधियों को निर्वाचित करने के अपने तरीके को ‘आनुपातिक प्रतिनिधित्व’ (पीआर) (proportional representation) प्रणाली में बदलने पर विचार कर रहा है। सांसदों और विधायकों का चयन हर पार्टी द्वारा प्राप्त वोटों के अनुपात के आधार पर राजनीतिक दलों द्वारा उपलब्ध करवाई गई सूचियों से होगा। वर्तमान में ‘फर्स्ट-पास्ट-दि-पोस्ट’ (एफपीटीपी) (first-past-the-post) प्रणाली के तहत उनका निर्वाचन प्रत्येक उम्मीदवार द्वारा प्राप्त वोटों के आधार पर होता है। इसमें पार्टी जो भी हो, अन्य प्रत्याशियों से अधिक वोट पाने वाला विजयी घोषित होता है। अगर भारत पीआर प्रणाली अपनाता है तो यह हमारे लोकतंत्र की वैधता को गंभीर खतरा होगा। पीआर प्रणाली हमारे समाज को और अधिक बांट देगी। यह अतिवाद बढ़ाएगी। हमारे लोकतंत्र को कुछ चंद हाथों में और अधिक धकेलेगी। सरकारें कमजोर करेगी और उनका प्रभाव घटाएगी। और सबसे बुरा यह कि यह हमारे सांसदों और विधायकों को जनता के प्रति और भी कम उत्तरदायी बना देगी। भारत की वर्तमान एफपीटीपी प्रणाली के साथ भी समस्याएं हैं। पीआर प्रणाली अपनाने के पक्ष में लिखते हुए देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने मुख्य तर्क पेश किया है कि ‘‘अल्पमत मतदाताओं द्वारा बहुमत दिलाने लायक सीटें जीत ली जाती हैं।’’ यानी वर्तमान प्रणाली के अंतर्गत जनप्रतिनिधि अल्पमत वोटों के आधार पर निर्वाचित हो सकते हैं, परंतु उनकी पार्टी विधायिका में बहुमत हासिल कर लेती है। उदाहरण कई हैं, उनमें सबसे प्रमुख है 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत। पार्टी को मात्र 31 प्रतिशत वोट मिले, परंतु 543 सीटों में से 282 जीतने के कारण लोकसभा में जबरदस्त बहुमत हासिल हुआ। एक पार्टी के लिए बहुमत की सीटें पाने के लिए यह इतिहास का न्यूनतम वोट शेयर था। कुरैशी अन्य तर्क भी देते हैं : हमारी वर्तमान प्रणाली वोट बैंकों की राजनीति, विभाजन की चुनावी रणनीतियां, और दागी उम्मीदवार उतारने के लिए पार्टियों को बढ़ावा भी देती है। इन सभी समस्याओं का प्रमुख कारण हमारी शासन प्रणाली है, प्रतिनिधि निर्वाचित करने की प्रणाली नहीं। संसदीय प्रणाली का मूल सिद्धांत सभी शक्तियां बहुमत पाने वाले दल को देता है, न कि एकल सदस्यों को। अगर कार्यकारी और विधायी पदाधिकारी अलग-अलग निर्वाचित हों और व्यक्तिगत रूप से सशक्त बनाए जाएं (जैसे कि राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार में होता है) तो उम्मीदवारों के गुण उनके पार्टी लेबल से अधिक महत्त्वपूर्ण होंगे। और अगर इन पदाधिकारियों का निर्वाचन अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों से हो – उदाहरणार्थ, कुछ सांसदों के लिए समूचा राज्य और प्रधानमंत्री के लिए सारा देश – तो वोट बैंक की राजनीति से जीतना इतना आसान नहीं होगा। इसलिए शासन प्रणाली में बदलाव लाए बिना पीआर प्रणाली अपनाने से वे समस्याएं और अधिक व गंभीर हो जाएंगी, जिनसे कुरैशी छुटकारा चाहते हैं।

विखंडन और अतिवाद

पीआर प्रणाली भारतीय समाज को और विभक्त करेगी व अतिवाद भड़काएगी। जब पार्टियों को उनके वोटों के अनुपात में सीटें देने का वादा होगा, राजनेता पार्टियां बनाने और समर्थक जुटाने को नए-नए तरीके ढूंढ निकालेंगे। मध्यमार्गी पार्टियां ऐसा करने की स्थिति में नहीं होंगी और इसीलिए समर्थन खो देंगी। उन वर्गवादी, नस्लीय, जातीय, धार्मिक और भाषायी स्वार्थों पर विचार करें जो व्यावहारिक पार्टियां आसानी से पैदा कर सकते हैं। संभावनाओं के विषय में सोचने से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं ः जैसे कि एक सुन्नी पार्टी, जैन पार्टी, राजपूत पार्टी, ब्राह्मण पार्टी, तेलुगू पार्टी, दक्षिणी पार्टी, उत्तरपूर्वी पार्टी, माओवादी पार्टी, आदि। भारत को ऐसी प्रणाली चाहिए जो हमें एकजुट करने में मदद करे। पीआर प्रणाली इससे ठीक विपरीत करेगी। अमरीकी राजनीतिक वैज्ञानिक फ्रेड रिग्ज ने 1990 के दशक में पीआर का अध्ययन किया और लिखा कि ‘‘लैटिन अमरीका में पीआर प्रणालियां बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में हैं, और वे पार्टियों में बंटवारे को बढ़ावा देती हैं।’’ वह कहते हैं कि जब पार्टियां स्वतंत्र मतदाताओं का समर्थन पाने का प्रयास करती हैं तभी मध्यमार्गी बनती हैं। इसी प्रकार वर्ष 1941 की प्रसिद्ध कृति ‘लोकतंत्र या अराजकता? ः आनुपातिक प्रतिनिधित्व (पीआर) का अध्ययन’, में जर्मन राजनीतिक वैज्ञानिक एफए हर्मंस ने यूरोप के पतन के लिए पीआर को दोषी ठहराया। ‘‘अगर हम केवल इस बारे में सोचते हैं कि हमें अलग क्या करता है और इस विषय में नहीं कि एकजुट क्या करता है,’’ उन्होंने लिखा, ‘‘और चुनावों में उसी आधार पर आगे बढ़ें, तो हम अराजकता के खतरे को गले लगा रहे हैं।’’

चंद लोगों के हाथ में लोकतंत्र

दूसरा, पीआर प्रणाली भारतीय लोकतंत्र को सीधे पार्टी आकाओं के हाथ में थमा देगी। जब उम्मीदवार पार्टी की सूची में होने के कारण जीतेंगे, तो वे अपने पार्टी आकाओं की खुशामद और पार्टियों का प्रतिनिधित्व करेंगे, जनता का नहीं। यही मुख्य कारण था कि जब 1800 के दशक में इंग्लैंड में पहली बार पीआर प्रणाली प्रस्तावित की गई, ब्रिटिश संवैधानिक विद्वान वाल्टर बैगेहाट इसके सबसे बड़े विरोधी बन गए। पीआर ‘‘मुख्यतः पार्टी के आदमी’’ पैदा करेगी उन्होंने अपनी पुस्तक ‘दि इंग्लिश कॉन्सटीट्यूशन’ में लिखा, और ‘‘उनको बनाने वाले स्वतंत्रता नहीं, बल्कि चापलूसों को तलाशेंगे।’’ यह भारत की संसद और विधानसभाओं में केवल पार्टीबाजी को बढ़ावा ही देगा। हम पीआर का हानिकारक प्रभाव पहले ही आज की राज्यसभा में देख रहे हैं, जिसके सदस्य इसी पद्धति के अंतर्गत पार्टियों द्वारा निर्वाचित होते हैं। अगर पीआर प्रणाली अपनाई जाती है तो बैगेहाट के अनुसार हमारे सभी विधायी सदस्य ‘‘एक पार्टी समिति द्वारा चयनित और पार्टी हिंसा के प्रति वचनबद्ध पार्टी नेता’’ होंगे।

कमजोर शासन और स्तरहीन उम्मीदवार

तीसरा, पीआर प्रणाली भारत की अस्थायी सरकारों संबंधी समस्या को पुनर्जीवित कर देगी। जब पार्टियों को प्राप्त वोटों की प्रतिशतता के आधार पर प्रतिनिधित्व की गारंटी होगी, गठबंधन करने या उन्हें बनाए रखने में उनकी रुचि और कम होगी। उनका वोट बैंक मौजूद रहेगा चाहे कोई सरकार गिर भी जाए। अपना समर्थन खो बैठने से बेपरवाह पार्टी आका सत्ता के लिए खुलेआम सौदेबाजी करेंगे। छोटे-मोटे दल सरकारें बनाएंगे औरगिराएंगे। भारत इन सब समस्याओं से दलबदल विरोधी कानून पास कर अभी उबरा है। इससे चुनावपूर्व गठबंधनों को बढ़ावा मिला है, जैसे कि एनडीए और यूपीए। देश का शासन चलाने के लिए संयत गठबंधन बनाने की ओर हुई समूची प्रगति हम गवां देंगे। एक चुनाव प्रणाली का उद्देश्य मात्र समाज का यथार्थ प्रतिनिधित्व देना ही नहीं, बल्कि उत्तरदायी शासन देना है। पीआर के कारण होने वाली निरंतर राजनीति, सरकारों के लिए साहसिक और परिवर्तनकारी निर्णय लेना असंभव बना देगी। भ्रष्टाचार बढ़ेगा, क्योंकि जनता एक बेईमान प्रतिनिधि को व्यक्तिगत रूप से हटा नहीं पाएगी।  ऑस्ट्रिया के माइसिज इंस्टीट्यूट के सीनियर फेलो जोन बेसिल अट्ली आगाह करते हैं, पीआर की व्यवस्था में ‘‘अतिवाद, अस्थिरता, असंतुलन और प्रभावहीनता होना अवश्यंभावी है।’’ जहां तक हमारे प्रतिनिधियों की गुणवत्ता पर पीआर के प्रभाव की बात है, वे अच्छे सौदेबाज तो होंगे, परंतु इससे अधिक कुछ भी नहीं। राजनीतिक राजवंश और भी पैदा होंगे। उचित प्रतिनिधित्व के मुखौटे के पीछे, भारत पर सियासी डीलमेकर शासन करेंगे।

अलोकतांत्रिक प्रभाव

अंत में, पीआर प्रणाली में भौगोलिक निर्वाचन क्षेत्रों से बिलग प्रतिनिधि चुने जाने का अलोकतांत्रिक तत्त्व भी मौजूद है। पीआर प्रणाली के तहत एक सांसद या विधायक के लिए यह संभव होगा कि वह किसी अन्य निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करे जिससे वह संबंधित भी नहीं है। क्योंकि इस प्रणाली में उम्मीदवारों का चयन पार्टियों द्वारा उपलब्ध करवाई गई सूची के आधार पर होगा। पीआर प्रणाली की इन आलोचनाओं से बचने के लिए कुरैशी एक पीआर-एफपीटीपी मिश्रण का सुझाव देते हैं। ऐसी प्रणाली जो आधुनिक जर्मनी में प्रयोग की जा रही है। विडंबना यह है कि जर्मनी ने मौजूदा मिली-जुली प्रणाली कब अपनाई जब देश एक संपूर्ण पीआर प्रणाली के तहत पूरी तरह फेल हो गया। वर्ष 1930 के चुनावों में हिटलर की नाट्जी पार्टी एफपीटीपी प्रणाली के तहत सीटें हार गई होती, परंतु पीआर के कारण इसने जीत पा ली। एक मिश्रित प्रणाली पीआर की मूलभूत कमजोरियों को दूर नहीं कर सकती, यह केवल उसके नुकसानों को कम कर सकती है। ‘आनुपातिक प्रतिनिधित्व’ से पूरी तरह दूर रहने में ही भारत की भलाई होगी।

हफिंग्टन पोस्ट/टाइम्स ऑफ इंडिया

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