वाणी की मधुरता

महेश योगी

मधुर और युक्तियुक्त वाणी के लिए विचार स्पष्ट और प्रखर और कम से कम हानिरहित और समूचे परिवेश के लिए सर्वाधिक जीवनपोषक होना चाहिए। कहने का आशय बोलने की कला स्पष्ट सोच और अभिव्यक्ति के भोले और सरल रूप पर निर्भर करती है। व्यक्ति को वैसा ही बोलना चाहिए जैसा वह अनुभव करे। बस इतना भर होना चाहिए कि विचार अवसर के हिसाब से युक्तियुक्त हो।  यदि कोई कुछ ऐसा सोचता है, जिसकी अभिव्यक्ति से परिवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े, तो अच्छा यह होगा कि वह न बोले। यद्यपि यह माना जाता है कि अपनी भावनाओं को दबाना अच्छा नहीं होता, बोलने की कला की अपेक्षा यह होती है कि ऐसे शब्द नहीं बोलने चाहिए, जो किसी को नाराज करें या परिवेश में तनाव उत्पन्न करें। यहां तक यदि किसी स्थिति में न भी कहना पड़े तो बोलने की कला कहती है कि यह भी न बोलला जाए। बोलने की कला सांची वाणी में निहित होती है, किंतु सांची वाणी भी ऐसी होनी चाहिए जिससे कोई आहत न हो। कई लोग अपनी सोच में स्वभाव से ही सत्यवादी होते हैं और मानते हैं कि सत्यवादिता इसी में निहित है कि जैसा वे सोचें उसी रूप में उसे व्यक्त करें। यह सांची वाणी हो सकती है किंतु यह जड़मति और श्रोता के लिए अप्रिय हो सकती है और सामंजस्य विहीनता में फलित होकर वाणी के मौलिक प्रयोजन को पराजित कर सकती है। आपको यदि कोई व्यवस्था भी देनी हो तो उसे मान्य शब्दों में व्यक्त करें। हृदय की करुणा और कोमलता का यह गुण तब ही विकसित होता है, जब हृदय भावातीत सत्ता के आनंद और परम हर्ष से द्रवित होने का अनुभव करता है। इस अनुभव से हृदय कोमल हो जाता है और तब व्यक्ति अपने स्वभाव से किसी के प्रति कठोर या अप्रसन्न करने वाला नहीं रह जाता। उसकी वाणी स्वाभाविक रूप से सामंजस्य में रहती है। कहने का आशय बोलने की कला की युक्ति में सोच और बोल में सत्यता होने के बावजूद ऐसे शब्दों का होना आवश्यक है जो दिल को छूने वाले कोमल और गुणवान भी हों। दिल की छूने वाली बोलने की आदत ऐसे स्वभाव को संजनित करने में निहित होती है, जिसमें नम्रता, कोमलता और हृदय की करुणा समाविष्ट हो। ऐसा होने से वाणी में कभी भी कठोरता नहीं आएगी। वाणी स्वतःस्फूर्त सांची और उन लोगों के लिए प्रिय होनी चाहिए, जो इसे सुने और इसके लिए सरलता तथा अनुरागी स्वभाव का विकसित होना आवश्यक है। विनम्र या दयालु होने के प्रयास का कोई अर्थ नहीं है। ऐसा करने से व्यक्ति प्रिय वाणी की कला में निपुण नहीं होगा। वाणी को मधुर बनाने का प्रयास करने से उसमें कृत्रिमता आएगी जो श्रोता पर सहज और मधुर प्रभाव छोड़ सके। वक्ता में कृत्रिमता उसके अंदर तनाव पैदा करने के साथ उसके श्रोता को भी प्रभावित करती है। आजकल कई ऐसे प्रशिक्षक हैं जो बोलने का प्रशिक्षण देते हैं। उनके उपाय आवाज की गुणवत्ता में सुधार भी करते हैं किंतु ये प्रशिक्षक भी जानते हैं कि वाणी में सुधार का तब तक कोई उपाय नहीं है जब दिमाग तनाव रहित और मांसपेशियां शिथिल न हों। बोलने की कला की विशेषता इस बात में निहित नहीं है कि कोई कितना कम या ज्यादा बोलता है। यह तो बस सरल और सहज बोलना सामान्य बात है तथापित इस क्षेत्र में भी प्रिय बोलने की कला सांची और सरल अभिव्यक्ति पर निर्भर करती है। भाषण की लंबाई का उसके सही प्रभाव से कोई लेना-देना नहीं होता। भाषण में यह ईमानदारी और सत्यता होती है, जो प्रभाव डालती है और अपने प्रयोजन को पूरा करती है। यदि वाणी प्रिय होने के साथ-साथ सार्थक है तब ही इसे बोलने की कला कह सकते हैं। मधुर वाणी से अपने दुश्मन को भी अपना बनाया जा सकता है।