शब्दवृत्ति

विषकन्या

(डा. सत्येंद्र शर्मा, चिंबलहार, पालमपुर )

जोड़ा बिछुड़ा हंस का, टूट गया अब साथ,

संन्यासी नित मांगता, विषकन्या का हाथ।

चली बांटने नियति, अब पहरे की सौगात,

गिनी सलाखें सौ दफा, नहीं कट रही रात।

रानी पसरी दुर्ग में, सेवक, पहरेदार,

रोट चर रही मुफ्त में, है कुकर्म का सार।

फफक-फफक, नाटक चला, बेच चुकी है लाज,

पापा संग फिल्में बनीं, त्यागी शर्म-लिहाज।

तूने खुद करवाए थे, साध्वी संग दुष्कर्म,

दे हिसाब कंकाल के, किए असंख्य कुकर्म।

हीरे-मोती हैं जड़े, विषकन्या का रूप,

महापाप मन में भरा, बाहर खिलती धूप।

हवालात की हवा से, मिटे अहम, अभिमान,

पापा हैं या और कुछ, पति करते बदनाम।

दोनों तोती बोलतीं, रटा रटाया पाठ,

खूब नचाया पुलिस को, खड़ी हुई अब खाट।

पाप धर्म के नाम पर, डेरे महाकलंक,

भुगत रहे परिणाम अब, राजा बन गए रंक।

दंगे की साजिश रची, आखिर लिया कबूल,

माफ करो यदि हो गई, एक छोटी सी भूल।