शब्दवृत्ति

टिकिट कटी !

(डा. सत्येंद्र शर्मा, चिंबलहार, पालमपुर )

राजनीति कांटों भरी, नहीं फूलों की सेज,

टिकिट कटी, थप्पड़ पड़ा, बड़ा करारा-तेज।

बीस साल कीर्तन किया, था दरबारी राग,

आंटी ढीली की नहीं, बांध बोरिया, भाग।

कंडक्टर भी कर रहा, देखो नखरे आज,

न देता, न काटता टिकिट, गिरा दी गाज।

रद्दी भी क्या मुफ्त में, मिलती देखी बोल,

खर्चा-पानी ख्याल कर, वरना डिब्बा गोल।

पिट्ठू, पठ्ठा बन गया, है उल्लू का आज,

नहीं मिला कोई झुनझुना, नहीं सुनी आवाज।

खून-पसीना एक कर, क्या पाया श्रीमान,

टिकिट कटी, गर्दन कटी, निकल रही अब जान।

पैराशूट उतार कर, किया नजरअंदाज,

चरणवंदना का चला, दल में खूब रिवाज।

नेता बाबा बन गए, पीते दारू-जूस,

कभी-कभी बस खा रहे, कई करोड़ी घूस।

नीति हो गई फुर्र अब, केवल बच गया राज,

राजनीति दलदल बनी, त्यागी शर्म-लिहाज।

गर्दन काटो प्यार से, मारो मीठी मार,

सदा झूठ से ही रहा, जननायक को प्यार।