सस्ती सियासत

(सुरेश कुमार, योल )

हिमाचल में चुनावी वेला पर लोकतंत्र का मेला लगा है। यह लोकतंत्र कुछ नया है। इसमें नेता आचार संहिता से पहले सब कुछ लुटा देना चाहते हैं, क्योंकि फिर आने वाले पांच साल खुद प्रदेश को लूटना है। राजनीति का आजकल यही गुरुमंत्र है कि पहले पैसा लगाओ और फिर कई गुना कमाओ। सरकार ने कुछ ही दिनों में मंत्रिमंडल की कई बैठकें की और कितनी ही नौकरियों की घोषणा कर दी। सच तो यह भी है कि वर्तमान कर्मचारियों का वेतन कर्ज लेकर दिया जा रहा है। कई नेता जनता में सिलाई मशीनें, वाशिंग मशीनें और साइकिलें बांटने में लगे हैं। सब कुछ दांव पर लगा दिया है कि आचार संहिता से पहले वोट पक्का कर लें। दोषी लोकतंत्र के लोग भी कम नहीं, जो अपने वोट की कीमत महज कुछ पैसे और एक बोतल दारू लगा लेते हैं। ऐसा लोकतंत्र लोगों के लिए नहीं हो सकता, जो लोगों को लालच देकर खड़ा किया हो। पहले राजनीति में नेता जन सेवा के लिए आते थे। अब राजनीति सौदेबाजी से ज्यादा कुछ नहीं। आचार संहिता के डंडे से पहले लुटता लोकतंत्र बहुत कुछ सिखा रहा है कि कैसे कुर्सी के लिए नेता सब कुछ दांव पर लगा रहा है। काश! सरकार इन सब से हटकर नौजवानों को रोजगार देती। सरकार अंग्रेजों के जमाने से हिमाचल को ढो रहे पुलों के निर्माण बारे सोचती। आज भी बाहर से आने वाले पर्यटक पुलों पर जाम के कारण वापसी पर प्रदेश को कोसते हुए लौटते हैं और दोबारा न आने की कसम खाते हैं। राजनीति से सरकार तो चल सकती है, पर प्रदेश को चलाने के लिए राजनीति से ऊपर उठना होगा। लेकिन ऐसा करेगा कौन?