सामान्य मानवीय इकाई की स्थिति तक पहुंचना

एक औरत को अपना अस्तित्व कायम रख पाने के लिए बहुत ही संघर्ष करना पड़ता है। दुनियादारी और घर-परिवार की बेडि़यों में जकड़ी हुई औरत कह पाने और कर पाने के लिए प्रयासरत रहती है। उसके प्रयास सफलता पाने से पहले किन पीड़ाओं को सहन करते हैं, यह तो बस वह ही समझ सकती है। उसके अंतर्मन में बहुत सी दर्द भरी कहानियां, किस्से और कुछ कड़वे सच दफन रहते हैं, जिन्हें वह सह तो सकती है, लेकिन कह नहीं सकती। रचना प्रक्रिया में घर-परिवार कितना सहयोग देता है, इसके बारे में भी कुछ कह पाना मेरे लिए शायद मुश्किल काम होगा। पूर्वानुभवों के कारण इसके बारे में कुछ कहना घर में तनाव लाने का ही कारण बनेगा, और कुछ नहीं। मैं इतना अवश्य बताना चाहूंगी कि मेरे पति डा. नीरज पखरोलवी ने हमेशा मुझे लेखन के लिए प्रेरित किया है। इस तरह का सहयोग, संबंधों में सामंजस्य पैदा करता है। आज के समय की आवश्यकता है कि अधिक से अधिक लिखा जाए। लिखा वह जाए जो स्त्री को कमजोर न बता कर शक्ति का रूप बताए। आज स्त्री जहां आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक हर क्षेत्र में बढ़-चढ़कर भाग ले रही है तो उसे पारिवारिक परिस्थितियां भी अनूकूल मिलें। विभिन्न कथा-कहानियों, लेखों, गीतों आदि में ऐसी वीर नारियों का चित्रण लेखक वर्ग को अधिक से अधिक करना चाहिए, ताकि जो रूढि़वादी लोग इस ध्वजा को लेकर डोंडी पीट रहे हैं कि औरत का फर्ज घर संभालना है, उनकी आंखें थोड़ी खुल जाएं। वे भी जान लें कि समाज की चिंता तथा निर्माण में स्त्री की भी भूमिका है। आजकल के समय में हमारे आसपास ऐसा बहुत कुछ घटित हो रहा है जो हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम दिन-प्रतिदिन सभ्य होते जा रहे हैं या असभ्यता हमारे सिर पर बैठ गई है। जी हां, कोटखाई में जो कुछ घटित हुआ, वह सभ्य समाज की असभ्यता की ऐसी घिनौनी तस्वीर है, जिसे देखकर पूरा देश शर्मसार है। समय आ गया है कि कड़े से कड़े दंड का प्रावधान हो। हमारे समाज, घर-परिवारों में ऐसा माहौल हो कि जिसमें पुरुष जाति यह समझ सके कि एक औरत किसी के हाथ का खिलौना नहीं है। ऐसी घटनाओं के बारे में जब हम सब सुनते हैं तो कुछ दिन खूब नारे व धरने होते हैं। बाद में फिर वही हाल। यह बहुत ही आवश्यक हो गया है कि हमारा समाज पाश्विक वृत्तियों को छोड़ कर सभ्य समाज बने, जिसमें स्त्री की स्थिति व हैसियत मानवीय इकाई के रूप में हो, लिंग, जाति व धर्म के आधार पर भेदभाव अपराध है। बड़े-बड़े साहित्यिक अनुष्ठानों में जाकर भी कई बार यह अहसास होता है कि यहां नारी को सम्मान तो मिल रहा है, लेकिन वहां भी कुछ आड़ी-तिरछी आंखों से देखने वाले यह कहते हैं कि जो औरत घर की चारदीवारी में रह रही है, वह सही है और जो अपने गुणों व रुचियों के कारण पुरुष के बराबर बैठ रही है, वह गलत है। लिखना और अपने अंतर्मन की भावनाओं को दर्शाना भी नारी के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। अपने आसपास कई बार ऐसा महसूस होता है जो नारी होने की सजा सा लगता है, जिसे सहा तो जा सकता है, लेकिन कहना आसान नहीं होता। यदि अभिव्यक्ति अवरुद्ध होगी तो जीवन मुरझा जाएगा, अपने वास्तविक स्वरूप से दूर हो जाएगा। जिस समाज में स्त्री सहज व स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकती, दैनिक दिनचर्या में भी आदेशों की प्रतीक्षा करती हुई, अपनी इच्छा व आकांक्षा को सात पर्दों में छिपाकर रखने के लिए विवश होती हो, वह समाज यदि सभ्य व प्रगतिशील होने का दावा करे तो हास्यास्पद लगता है। घर से बाहर खुले में विचरण करती स्त्री पर आक्षेप लगाता पुरुष समाज क्या सिद्ध करता है? यही कि इतनी शिक्षा व ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार के बाद भी पुरुषों की मानसिकता में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। आज भी पढ़ाई करने जा रही छात्राओं को छेड़छाड़ का भय है। वे सिर ढांप कर तथा झुकाकर चलने को विवश हैं। इससे या उससे मुक्त करने की जरूरत नहीं है। देश को भय से मुक्त करने की जरूरत है। अपने भविष्य को सुरक्षित माहौल देने की जरूरत है। असल में हमारे समाज में स्त्री को एक वस्तु के रूप में ही देखा है। पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती मानवीय इकाई नहीं समझा। जिस दिन परस्पर सम्मान भाव होगा, समाज खुशहाल तथा उन्नत होने की राह पर बढ़ेगा।

-सोनिया दत्त पखरोलवी, नादौन

परिचय

* नाम : सोनिया दत्त पखरोलवी

* जन्मतिथि : 06-06-1976

* सौभाग्य रहा कि साहित्यिक परिवेश मिला, जिसमें अध्ययन व लेखन की परंपरा थी

* लेखन : पिछले 15 वर्षों से पहाड़ी और हिंदी में कविताएं और कहानियां विभिन्न समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित, विभिन्न काव्य संगोष्ठियों में कविता पाठ किया है

* आत्मकथ्य : भावुक हृदय किसी को व्यथित देख पीड़ा से तड़प उठता है, तब आंख के आंसू स्याही बन कर कागज पर बिखर जाते हैं और जन्म होता है मेरी कविताओं और कहानियों का

* संपादित संकलनों में कविताएं संकलित हैं