चुनावी खामोशी के बीच खुद को संवारें

सुरेश कुमार

लेखक, योल, कांगड़ा से हैं

बच्चों की भूमिका भी इन चुनावों में कम नहीं रही। बेशक वे वयस्क नहीं, उनका वोट नहीं पर स्वीप कार्यक्रम के दौरान घर-घर जाकर लोगों को जागरूक करना, उन्हें वोट के महत्त्व बारे बताने में इनके नन्हे कदमों ने पूरा प्रदेश नाप दिया। देश का भविष्य बच्चे अब जागरूक हैं…

उस दिन 18 दिसंबर की सुबह कुछ अलग होगी, क्योंकि 17 दिसंबर की रात नेताओं की जागते हुए, करवटें लेते हुए गुजरेगी कि कल का सूरज क्या लेकर आएगा। किसी के लिए सत्ता का सवेरा होगा, तो किसी के लिए राजनीति की रात खत्म नहीं होगी। चुनावों के बाद उनतालीस दिनों का सन्नाटा और कयासों का जमघट, ख्यालों में जीत-हार के जमा- जोड़ दिमाग को थका देंगे। अब तक का हिमाचल का इतिहास तो यही रहा है कि दो दलों की सरकारें अदला-बदली कर इस प्रदेश को खींच रही हैं, पर इस बार आकलन कुछ अलग ही लगाया जा रहा है। पार्टी से बगावत कर चुनाव मैदान में उतरे प्रत्याशी सारे ही समीकरणों को बिगाड़ सकते हैं। वैसे हिमाचल में तीसरा विकल्प तो है नहीं, बस यही कांग्रेस और भाजपा ही हैं, जो सत्ता पर काबिज होने का दावा कर रही हैं। आजकल के चुनाव लोकतंत्र के लिए कम, पर साख का सवाल ज्यादा हो गए हैं। समय के साथ हर चीज बदल गई है और अब चुनाव भी आधुनिक शैली में होने लगे हैं। पहले बैलेट पेपर पर चुनाव होते थे और अब ईवीएम के साथ वीवीपैट मशीनों के साथ चुनाव हो रहे हैं। 13वीं विधानसभा से पहले शायद ही किसी चुनाव में चुनाव आयोग ने प्रदेश के हिस्से इतनी बड़ी स्टेच्यू की स्थिति दी हो। केंद्र तो प्रदेश को छोटा समझ कर जीरा देता है।

इस बार तो चुनाव आयोग ने भी मौका नहीं छोड़ा और प्रदेश को 39 दिनों के लिए लकवाग्रस्त कर दिया। भेदभाव यहां भी हुआ, जहां गुजरात के चुनावों का ऐलान बाद में हुआ, वहीं हिमाचल को पहले ही इस भंवर में उतार दिया, जबकि नतीजे एक ही दिन 18 दिसंबर को आने हैं। आज सरकार होते हुए भी हम बिना सरकार के हैं। इस दौरान राजनीति पूरी तरह से खामोश है। इस राजनीतिक खामोशी के दौरान बहुत कुछ सकारात्मक हो सकता है। नेताओं का कोई दखल न होने से जिला प्रशासन अपने तरीके से अपना कामकाज निपटा सकता है। पीडब्ल्यूडी और आईपीएच महकमे ऐसे निर्माणाधीन कार्यों को अपनी मंजिल तक पहुंचा सकते हैं, जो पहले से ही जारी हैं। सरकार बनने से पहले पुलिस पर भी कोई ज्यादा दबाव नहीं है और न ही प्रदेश में कोई ज्यादा वीआईपी हलचल है। ऐसे में पुलिस अपनी यातायात व्यवस्था दुरुस्त कर युवा पीढ़ी को यातायात के नियमों से रू-ब-रू करवाते हुए हेल्मेट की अहमियत बता सकती है। इस अवधि के दौरान तस्करी, अवैध खनन और नशे के कारोबार पर पुलिस नकेल कस सकती है।

18 दिसंबर तक प्रशासन के कामों में राजनीति का कोई दखल नहीं होगा। इस समय अवधि का सकारात्मक तरीके से उपयोग किया जा सकता है। सरकार बनते ही सारी शक्तियां नेताओं के हाथों में चली जाएंगी, तो इस सुनहरी अवसर को भुनाने का प्रशासन को पूरा पर्यास करना चाहिए। इस चुनाव को पर्व कहा जाना चाहिए, क्योंकि इस बार के चुनाव में नए युवाओं में तो जोश दिखा ही, पर बुजुर्गों में भी उत्साह कम नहीं था। जिला कांगड़ा की सुक्कड़ तहसील के कलोहा की 110 वर्षीय बुजुर्ग महिला लोकतंत्र के इस महायज्ञ में वोट की आहुति डालने घर से निकली, तो समझो कि चुनाव आयोग अपने मिशन में सफल रहा। यानी यह महिला भी चाहती हैं कि अगली सरकार बनने में उनका भी योगदान हो। शरीर बेशक साथ न दे रहा हो, पर उम्मीदों के पंख अभी भी फड़फड़ा रहे हैं उन कंधों को देखने के लिए, जिन पर सवार होकर प्रदेश विकास के पथ पर सरपट दौड़ेगा। युवाओं में जोश इस बार काफी दिखा। सरकार किसी भी पार्टी की बने, पर उन्होंने अपनी भूमिका निभा दी। नए मतदाताओं ने अपने वोट के साथ लक्ष्य बांध दिए कि आने वाली सरकार उन्हें साधेगी। प्रत्याशियों के पूजा-पाठ और ज्योतिषियों की कालगणना ने आस जरूर बंधा दी है, पर कोई नहीं जानता इन स्ट्र्रांग रूम में  बंद पड़ी मशीनों में हिमाचल किस के हवाले लिखा है। इतना जरूर है कि आज का युवा जागरूक हुआ है, बुजुर्ग सजग हुए हैं और महिलाएं इन दोनों से दो कदम आगे निकल गईं। घर की चारदीवारी लांघ कर सरकार चुनने की कवायद में महिलाओं का आंकड़ा पुरुषों को पछाड़ता दिखा। अब उन्हें चूल्हे-चौके से ज्यादा इस बात की फिक्र है कि प्रदेश की बागडोर किन हाथों में होगी। बच्चों की भूमिका भी इन चुनावों में कम नहीं रही। बेशक वे वयस्क नहीं, उनका वोट नहीं पर स्वीप कार्यक्रम के दौरान घर-घर जाकर लोगों को जागरूक करना, उन्हें वोट के महत्त्व बारे बताने में इनके नन्हे कदमों ने पूरा प्रदेश नाप दिया। पहले ऐसे नहीं था, जैसा इस बार हुआ। पहले अकसर कहा जाता था कि मैं वोट नहीं डालूंगा, तो क्या फर्क पड़ेगा। अब लोगों की सोच बदली है और वे जान गए हैं कि उनका वोट कितना कीमती है। किसी का एक वोट जीत-हार का फैसला कर देता है। कहते हैं सब्र का फल मीठा होता है, पर इंतजार की घडि़यां लंबी होती हैं खासकर चुनाव के फैसले की। इसलिए ये  खटकती भी हैं, पर कोई कुछ नहीं कर सकता। बस कयास लगाए जा सकते हैं और मात्र यही एक विकल्प है। हां, 18 दिसंबर के सूरज की किरणों में नहाया हिमाचल कुछ अलग जरूर होगा, क्योंकि उस दिन हिमाचल की नैया का खिवैया मिल जाएगा। प्रदेश का विकास उससे बंधा होगा।

अतीत में हिमाचल कैसा भी रहा हो, पर प्रदेश को भविष्य में किस दिशा की ओर लेकर जाना है, सब उस पर निर्भर करेगा। जीतने की खुशी उसे जरूर होगी, पर ताज कांटों भरा ही होगा। कर्ज के कांटे ताज में सजे होंगे, पर फिर भी चेहरे पर खुशी चमकेगी, क्योंकि जनता ने उस पर विश्वास जताया है और यह विश्वास इन कांटों की चुभन महसूस नहीं होने देगा।

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