निर्माण के अखाड़े में शिमला

पर्वतों की रानी के वजूद में भर रहा कंकरीट और भविष्य की चेतावनी को देखते हुए राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल का फैसला, पूरे परिदृश्य की परिभाषा बदल रहा है। शिमला में निर्माण की भूख और विकास का तिलिस्म, राजधानी के अक्स में जितना जहर भर चुका है, काफी खतरनाक है। इसलिए  करीब साढ़े तीन साल की न्यायिक लड़ाई इस अंजाम तक पहुंची ताकि शिमला अपने विकास के गुरूर से हट कर पर्वतीय यथार्थ की आंखों से देखेें। वास्तव में एनजीटी का फैसला हमारे विकास की छूट को परिसीमित करते हुए जो प्रश्न उठा रहा है, उस पर गौर करना होगा। यह शिमला की ग्रीन बैल्ट का ही सवाल नहीं, बल्कि पूरे हिमाचल की तस्वीर का ऐसा चित्रण है जिस पर तुरंत तवज्जो देनी होगी। शहरीकरण को लगातार नजरअंदाज करने की वजह से हिमाचल के प्रमुख नगरों व कस्बों में निर्माण के अखाड़े पूरे पर्यावरण तथा पारिस्थितिकीय संतुलन को चुनौती देने लगे हैं। बेशक शिमला की प्राकृतिक और भौगोलिक क्षमता से बाहर जाकर नवनिर्माण हुए और कायदे-कानून का उल्लंघन सरकारी इमारतों को भी कसूरवार बनाता रहा है। आज अगर एनजीटी की पैमाइश में भवनों की ऊंचाई सीमित की जा रही है, तो शिमला के इसी भय पर सीना तान कर खड़ी हाई कोर्ट की इमारत को क्या हमारा कानून माप पाएगा। इस दौरान अवैध निर्माण को वैध बनाने के चोर रास्ते खोजने  के बजाय शिमला के अस्तित्व को  बचाए-बनाए रखने  के तरीके ईजाद किए जाते, तो आज नौबत कड़ी फटकार खाने तक न पहुंचती। शिमला तो इसलिए राडार पर आ गया क्योंकि योगेंद्र मोहन सेन गुप्ता सरीखे जागरूक नागरिक ने सारे विषय को अपने कंधे पर ढोया, लेकिन ऐसे दर्जनों अन्य नागरिक हिमाचल को बचाने में कम पड़ेंगे। मकलोडगंज, डलहौजी या मनाली में पर्यटन विस्तार के नाम पर खोखले हो रहे पहाड़ पर सख्त हिदायत की जरूरत है, तो दियोटसिद्ध, नयनादेवी या चिंतपूर्णी जैसे धार्मिक स्थलों को भी अनियंत्रित विकास से बचाना होगा। प्रदेश के प्रमुख मार्गों और घाटियों की ढलान पर उग रहे कंकरीट पर एनजीटी ने कड़ा संज्ञान लेते हुए तीन मीटर तक निर्माण पर रोक लगाकर एक क्रांतिकारी संदेश दिया है। कानून की कवायद में यूं तो हिमाचल में तीन दशकों से ग्राम एवं नगर योजना कानून पहरेदारी कर रहा है, लेकिन इसकी आंखों में धूल झोंकता अवैध निर्माण जारी रहा। नतीजतन हरी पट्टियों के ऊपर कंकरीट के जंगल खड़े हो गए और राजनीतिक सोच की संकीर्णता ने अपने फायदे के सिवा कुछ नहीं किया। उन तमाम नीतियों और सोच की शून्यता पर विचार होना चाहिए, जो आवासीय मांग का समाधान न कर पाई। हर बार उपग्रह नगरों की बात होती है, लेकिन सरकारें बदलते ही विषय बदल जाते हैं। नगर नियोजन की दिशा में जो विकास के खाके निर्धारित हुए, उन पर अमल नहीं हुआ। प्रदेश में न तो शहरी विकास के लिए भू अधिग्रहण की कोई नीति बनी और न ही भूमि बैंक स्थापित करने की परिपाटी नजर आई। हर शहर और कस्बे की भौगोलिक परिस्थिति को देखते हुए विकास योजनाएं बनें, तो ट्रांसपोर्ट से लेकर आवासीय सुविधाओं का हल निकल सकता है। इसी तरह योजना बनाते समय कुछ शहरों के समूह बनाकर अलग से कर्मचारी नगर तथा किसी केंद्रीय स्थल पर अलग से कार्यालय स्थानांतरित किए जा सकते हैं। जहां तक शिमला की क्षमता का सवाल है, इसके विकास प्रारूप में राजधानी, पर्यटन, कर्मचारी तथा धरोहर महत्त्व को संरक्षण देने की जरूरत है। बेहतर होगा शिमला की परिधि में कम से कम आधा दर्जन उपग्रह शहर विकसित करते हुए एरियल ट्रांसपोर्ट नेटवर्क से सारे सिरे जोड़े जाएं।