पाती…

प्रतिबिंब के अंतर्गत 12-11-2017 को प्रकाशित डा. सुशील कुमार फुल्ल का साहित्यिक परिचय और साक्षात्कार पढ़ा। ‘दिव्य हिमाचल’ को इस मायने में साधुवाद कि इस घोर सृजन विरोधी माहौल में भी आपने एक उम्मीद, एक आस, एक सपने को जिंदा रखा है। दहलीज पर एक दीया जलाया है, जिसकी लौ में कुछ ऐसा नजर आ रहा है, जो दर्शाता है कि अभी सभी कुछ खत्म नहीं हुआ है, उम्मीदों ने दम नहीं तोड़ा है और संभावनाएं अंतिम दौर से नहीं गुजर रही हैं। इससे पूर्व अप्रैल में भी अतिथि संपादक का एक सिलसिला शुरू किया गया था। पांच-सात अंक निकले भी। लगा कि सिलसिला आगे तक चलेगा और प्रदेश में पसरे सन्नाटे को भंग करेगा। अपने-अपने दड़बों से बाहर निकलकर खुले में खुला-डुला संवाद करेंगे। एक नया माहौल बनेगा, संवादहीनता खत्म होगी, पर ऐसा हुआ नहीं। अतिथि संपादकों ने कुछ भी ऐसा खास पेश नहीं किया जो उस तरह से एक नई पहल हो जैसा दिव्य हिमाचल ने शायद सोचा था। इसके कुछ अंतराल बाद चंद्ररेखा ढडवाल द्वारा प्रस्तुत महिला रचनाकारों की प्रस्तुति काबिले-तारीफ ही कही जाएगी। इस मायने में कि चंद्ररेखा ने विस्तृत फलक पर स्पेस दिया। वरिष्ठ से लेकर नवोदितों तक बहुतों को अपने रचना-कर्म को सामने रखने का अवसर खुले मन से दिया। प्रतिबिंब में नई सीरीज के तहत प्रकाशित साक्षात्कार डा. फुल्ल की सृजन-धर्मिता पर व्यापक प्रकाश डालता है। फिर भी लगता है कि साक्षात्कार के लिए प्रेषित प्रश्नों की भाषा और विषयवस्तु अस्पष्ट, उलझावपूर्ण और कहीं-कहीं भाषायी आतंक पैदा करने वाली प्रतीत होती है। ‘दिव्य हिमाचल’ को केवल साहित्यकार ही नहीं पढ़ते, अपितु ऐसे समान्य पाठक भी पढ़ते हैं, जो साहित्यिक अभिरुचि रखते हैं, पर सीधी-सादी और सरल-सहज भाषा में। जलेबीनुमा भाषा से उस तबके को कोफ्त होती है। मैं यह बात धरातलगत सच्चाई से बाबस्ता होने के कारण लिख रहा हूं। यूं तो हर संबद्ध व्यक्ति की अपनी भाषा और शैली होती है जो उसके रचनात्मक व्यक्तित्व की पहचान भी होती है। फिर भी ‘दिव्य हिमाचल’ ने एक अच्छी शुरुआत की है और यह सिलसिला चलता रहना चाहिए।

-हंसराज भारती, प्रधान,

सरकाघाट साहित्य एवं कला मंच