बहुभाषी सृजनकर्मी : परमानंद शर्मा

जन्मदिन विशेष

हिमाचल के वयोवृद्ध लेखक परमानंद शर्मा न केवल बहुभाषाविद हैं, अपितु बहुभाषी सृजनकर्मी भी हैं। उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, पंजाबी एवं हिमाचली में अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है। 17 नवंबर सन् 1923 को जालंधर के एक गांव घोडि़याल में जन्मे परमानंद शर्मा सन् 1964 से सन् 1968 तक पंजाब के राज कवि भी रहे। सन् 1948 में साधु आश्रम होशियारपुर से उनका महाकाव्य ‘छत्रसाल’ प्रकाशित हुआ जो शिवाजी के शौर्यपूर्ण जीवन पर आधारित है। उनकी इस कृति का हिंदी जगत में भव्य स्वागत हुआ। मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, माखन लाल चतुर्वेदी जैसे ख्यातिलब्ध साहित्यकारों ने मुक्त कंठ से उनके काव्य की प्रशंसा की। भाषा के ओज और कथानक की प्रासंगिकता ने वीर काव्य को जनमानस की वाणी में अमृत की तरह घोल दिया। इसकी गेयता ने काव्य कृति को चार चांद लगा दिए। पंडित जी ने सिकंदर और पोरस की वीरगाथा को लेकर भी एक खंड काव्य लिखा और युवावस्था में ही वह हिंदी संसार में ख्यात हो गए। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने उन्हें छत्रसाल पुस्तक के लिए पुरस्कृत किया। उन्होंने बंदा बहादुर की कथा को लेकर भी एक खंड काव्य की रचना की जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा विद्वानों ने की। परमानंद शर्मा का कवि परिमार्जित एवं शालीन भावनाओं का कवि है। उनकी कविताओं में आदर्श का अनुपालन सहज स्वाभाविक ढंग से आया है। जब कवि स्वयं कविता का पाठ करता है तो उसमें लरज-गरज और भी प्रभावी हो जाती है। परमानंद शर्मा ने लाहौर के राजकीय महाविद्यालय से सन् 1945 में एमए अंग्रेजी भाषा में पास किया। सिविल सर्विसिज की लिखित परीक्षा भी पास की, परंतु भाग्य में लिखा था कि वह एक कुशल अध्यापक व एक प्रभावी साहित्यकार के रूप में ख्यात हों। उन्होंने अंग्रेजी भाषा के लेक्चरर के रूप में नौकरी ज्वाइन की और पंजाब, हरियाणा तथा हिमाचल के विभिन्न महाविद्यालयों में पढ़ाते हुए अंततः प्रिंसीपल, राजकीय महाविद्यालय धर्मशाला से सेवानिवृत्त हुए। वह इसके बाद धर्मशाला में ही बस गए। एनसीसी से आजीवन संबद्ध होने के कारण उन्हें विशिष्ट सेवाओं के लिए कर्नल का खिताब भी मिला और वह इसी सिलसिले में बंगाल प्रवास पर भी रहे। साहित्य के क्षेत्र में अद्भुत योगदान के कारण उनका नामांकन साहित्य अकादमी नई दिल्ली में भी पांच वर्ष के लिए सन् 1987-92 के लिए हुआ। अंग्रेजी में भी शर्मा जी ने बहुत सी पुस्तकें लिखी हैं जिनमें कविता तो है ही, साथ ही ‘माई माउंटेन ऐंड माई वैली’ में उन्होंने आत्मकथात्मक शैली में अपनी जीवन गाथा को भी बहुत ही रोचक ढंग से लिखा है। नीति और मूल्यों का क्षरण शर्मा जी की कविताओं में कटाक्ष का कारण बना है। ‘चम्मचे’ उनकी एक बहुचर्चित कविता है जिसमें उन्होंने चम्मचों के प्रकार दिखाए हैं। महाकाव्य एवं खंड काव्य उनकी प्रबंधात्मक शैली की प्रखरता को रेखांकित करते हैं। कथा में ओज गुण उनकी रचनाओं को काव्यात्मकता से सम्पृक्त करता है। कवि सम्मेलनों में भी शर्मा जी की उपस्थिति गरिमा प्रदान करती है। नई पीढि़यों के लिए उनकी रचनात्मकता प्रोत्साहन एवं प्रेरणा का अजस्र स्रोत है। धार्मिक रुचि एवं प्रबंधन कुशलता के कारण उन्हें महामहिम दलाईलामा के सानिध्य में रहने और उनके विशिष्ट ग्रंथों का हिंदी एवं अंग्रेजी में अनुवाद करने का भी अवसर मिला। इंडो तिब्बतन सोसायटी में वर्षों तक सम्मानित सदस्य होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त है। उनका लेखन निरंतर जारी है। बहुभाषाविद होने के कारण उनकी रचनाएं अंतराल के साथ कभी उर्दू में, कभी अंग्रेजी में, कभी हिंदी में और समयानुसार हिमाचली पहाड़ी में भी नई ताजगी लेकर छपती रहती हैं। ईश्वर करे कि वह दीर्घ आयु हों और इसी प्रकार साहित्य की सेवा करते रहें।

   -डॉ. सुशील कुमार फुल्ल, पालमपुर