भारत में क्यों नहीं प्रभावी विपक्ष

भानु धमीजा

सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’

लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं

भाजपा की सफलता उन कारकों की ओर संकेत करती है जो भारत में नए विपक्ष के उभरने को आवश्यक हैं। नए विपक्ष की एक मध्यमार्गी विचारधारा होनी चाहिए जो अधिकांश लोगों को पसंद आए। इसका संगठन नेताओं के बजाय एकल कार्यकर्ताओं पर आधारित हो, जिसका ढांचा विकेंद्रीकृत होना चाहिए। अच्छे नेता सामने लाने के लिए इसमें आंतरिक लोकतंत्र का पालन होना चाहिए। और  इसके पास व्यावहारिक एजेंडा होना चाहिए, और अच्छे नारे…

हर गुजरते दिन आवाजें ऊंची होती जा रही हैं कि भारत में एक मजबूत विपक्ष की आवश्यकता है। परंतु ऐसा होता नजर आ नहीं रहा। भारत के स्वतंत्र इतिहास में अधिकतर ऐसा ही रहा है। विपक्षी पार्टियों को विकसित करने के स्थान पर, भारत की राजनीतिक प्रणाली दरअसल उन्हें नुकसान पहुंचाती है। आजतक केवल भाजपा ही सफल रही है। इस पार्टी ने भारत की व्यवस्थागत चुनौतियों से पार पाया है। और इसी सफलता में भारत के नवीन विपक्ष के लिए आशा निहित है।

कांग्रेस के विरुद्ध कैसे असफल रही विपक्षी मुहिम

भारतीय स्वतंत्रता के आरंभिक वर्षों में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध विपक्ष खड़ा करने के कई कुशल प्रयास पूरी तरह असफल रहे। ये प्रयत्न छोटे व्यक्तियों द्वारा नहीं किए गए, जो अनुभवहीन या राजनीतिक रूप से नासमझ हों। उदाहरण के लिए सी. राजगोपालचारी और केएम मुंशी द्वारा 1959 में आरंभ की गई स्वतंत्रता पार्टी पर विचार करें। दोनों भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिग्गज और नेहरू व पटेल के दाहिने हाथ थे। राजगोपालचारी भारत के राष्ट्रपति पद के लिए नेहरू की पहली पसंद थे, और मुंशी संविधान सभा में कांग्रेस पार्टी के प्रमुख लेफ्टिनेंट। उन्होंने कांग्रेस के बढ़ते राज्य नियंत्रणवाद का विकल्प उपलब्ध करवाने के लिए स्वतंत्रता पार्टी की स्थापना की। राजगोपालचारी ने कहा कि उनकी पार्टी ‘‘सरकार के बढ़ते अतिक्रमण के खिलाफ हर नागरिक की सुरक्षा के लिए’’ बनाई गई है। ‘‘यह भारतीय कांग्रेस पार्टी के तथाकथित समाजवाद की चुनौती का उत्तर है।’’ ऐसे मध्य-दक्षिणमार्गी दल (centre-right party) की भारतीय राजनीति में अत्यधिक आवश्यकता थी। स्वतंत्रता पार्टी ने बेहतर चुनावी प्रदर्शन किया। अपने पहले आम चुनाव में ही यह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, और कम्यूनिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी व जनसंघ से आगे रही। वर्ष 1967 तक इसके पास राष्ट्रीय तौर पर 9.6 प्रतिशत वोट और संसद में 44 सीटें थीं। परंतु 1974 तक यह पार्टी गायब हो चुकी थी। कई अन्य विपक्षी मुहिमों की कहानी भी समान है। जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया द्वारा बनाई गई सोशलिस्ट पार्टी केवल 20 वर्ष टिक पाई। आचार्य कृपलानी की किसान मजदूर पार्टी दो साल के भीतर सोशलिस्ट पार्टी में विलीन हो गई। बीआर अंबेडकर द्वारा बनाई गई रिपब्लिकन पार्टी 1956 में उनके निधन के तुरंत बाद कई टुकड़ों में बिखर गई।

मजबूत विपक्ष की उत्पत्ति रोकने वाले कारक

हमारी सरकार की प्रणाली की कई खामियों के कारण भारत मजबूत विपक्षी पार्टियां और नेता तैयार करने में असमर्थ है। कम से कम छह मूलभूत समस्याएं विचार में आती हैं:

आरएसएस के संस्थापक केबी हेडगेवार का कहना था कि
‘‘शक्ति, यह याद रखना चाहिए, केवल संगठन के जरिए ही आती है।’’

भाजपा ने प्रणालीगत चुनौतियों से पार कैसे पाया

यही कारण हैं कि भाजपा को एक मजबूत पार्टी बनने और सत्ता में आने में 60 वर्ष लग गए। इसके पूर्ववर्ती जनसंघ को 1977 के असफल जनता पार्टी गठबंधन का केवल एक हिस्सा बनने में ही तीन दशक लगे। यहां तक कि अपने नए अवतार में भी भाजपा वर्ष 1984 में संसद में मात्र दो सीटों तक सिमट कर रह गई थी। भाजपा के दो मुख्य मजबूत पक्ष थे जिनका अन्य पार्टियों में अभाव रहा है :एक विचारधारा जो बहुसंख्यक हिंदू आबादी को संगठित कर सकती थी, और एक जमीन से जुड़ी संस्था, आरएसएस। वर्ष 1925 से आरएसएस व्यवस्थित तरीके से हिंदू युवाओं को एक संस्था में संगठित कर रहा था। आरएसएस के संस्थापक केबी हेडगेवार का कहना था कि ‘‘शक्ति, यह याद रखना चाहिए, केवल संगठन के जरिए ही आती है।’’ इन मूलभूत मजबूतियों ने भाजपा को बने रहने और बढ़ने का अवसर दिया। यह बिना सत्ता में आए आरएसएस के संगठन और समर्थन पर आश्रित रहने में समर्थ थी। इसका विखंडन नहीं हुआ क्योंकि इसके हर नेता आरएसएस की विचारधारा से आए और उस संस्था पर निर्भर रहे। इसे वोट बैंक का पीछा नहीं करना था क्योंकि यह पहले ही सबसे बड़े वोट बैंक हिंदू बहुमत का प्रतिनिधित्व करती थी। और इसके पास नेताओं का अभाव नहीं रहा, क्योंकि आरएसएस की ट्रेनिंग ने संगठनात्मक कौशल के साथ पार्टी को समर्पित विचारक उपलब्ध करवाए।

नए विपक्ष के लिए सबक

भाजपा की सफलता उन कारकों की ओर संकेत करती है जो भारत में नए विपक्ष के उभरने को आवश्यक हैं। नए विपक्ष की एक मध्यमार्गी विचारधारा होनी चाहिए जो अधिकांश लोगों को पसंद आए। इसका संगठन नेताओं के बजाय एकल कार्यकर्ताओं पर आधारित हो, जिसका ढांचा विकेंद्रीकृत होना चाहिए। अच्छे नेता सामने लाने के लिए इसमें आंतरिक लोकतंत्र का पालन होना चाहिए। और इसके पास व्यवहारिक एजेंडा होना चाहिए, और अच्छे नारे। नए विपक्ष के लिए एक व्यापक विचारधारा पहली आवश्यकता है। इसकी परिकल्पना हिंदुओं के साथ-साथ अल्पसंख्यकों को भी भानी चाहिए। भाजपा विरोधी पार्टियों का वर्तमान फार्मूला, तथाकथित धर्मनिरपेक्षता, अपना असर खो चुका है। नए विपक्ष को सच्ची धर्मनिरपेक्षता जो समान कानूनों और धर्म व सरकार के पृथक्करण पर आधारित हो में विश्वास रखना चाहिए। इसी प्रकार, समाजवाद भी बीती बात है। किसी भी नए विपक्ष को सफल होने के लिए स्वाधीनता, समानता, व्यक्तिवाद, जनवाद, और गैर-दखलअंदाजी पर आधारित एक नए राजनीतिक पंथ का प्रचार करना चाहिए। यह देश के लिए दुखद है कि भारत के नए विपक्ष को हमारी मौजूदा शासन व्यवस्था से किसी मदद की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। आज जनता को बेशक बदलाव की उम्मीद हो, पर मूलभूत परिवर्तन के लिए विपक्ष को खड़ा होने में लंबे समय तथा कठिन परिश्रम की आवश्यकता होगी।

साभार :दि क्विंट

फॉलो करें :twitter@BhanuDhamija