मंचीय कविता का नहीं है कोई विजन

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने सुरेश सेन निशांत के कविता संग्रह ‘वे जो लकड़हारे नहीं हैं’ की पड़ताल की तो काव्य के कई पहलू सामने आए… 

कुल पुस्तकें         :         02

कुल पुरस्कार       :         ०4

साहित्य सेवा        :         31 वर्ष

प्रमुख किताबें      :  ‘वे जो

लकड़हारे नहीं हैं’,

‘कुछ थे जो कवि नहीं थे’। इसके अलावा इनकी

रचनाएं पत्रिकाओं में छपी

दिहि :- गजल की तरलता और कविता की सरलता के बीच आपके लिए कहने की वजह।

सुरेश सेन :- गजल में भले ही एक लय है, एक तरलता है, साधारण लोगों के बीच में जगह बनाने की खासियत यह है। पर कविता का क्षेत्र गजल से कहीं बहुत ज्यादा व्यापक है। इस व्यापकता को पाना गजल के बस की बात नहीं है। जन के मन की ऊहापोह को विस्तार से पकड़ना कविता के बस का ही है, गजल का नहीं।

दिहि :- कविता खुद पास आती है या कोई पुकारता है तो पहुंच जाते हैं आप?

सुरेश सेन ः- कविता के पास पहुंचने के लिए गहन अध्ययन, विवेक की प्रौढ़ता, अनुभूत जीवन से कविता को ढूंढने का हुनर चाहिए तथा बाहर से आए ज्ञान को भीतर कैसे पकड़ा जाए, उससे कैसे एक आत्मीय संबंध बनाया जाए, यह सब कविता के पास पहुंचने का रास्ता है। कविता अपने आप कभी नहीं पहुंचती। उसके लिए संघर्ष करना पड़ता है।

दिहि :- रिश्तों की कोख से अलग शब्द की कोमलता बचा पाना मुश्किल है या कठोरता के जंगल में भटकते शब्दों को खोज पाना आसान है।

सुरेश सेन :- रिश्तों की कोख से अलग शब्दों की कोमलता को बचा पाना सचमुच कठिन है क्योंकि वर्तमान बहुत ही कटु है। यहां रिश्तों की कोमलता को बचाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। धरती से हमारा प्यार धरती की कोमलता को बचाता है। मानव से हमारा प्यार मानवीय रिश्तों को पुख्ता करता है। वर्तमान में इन सब रिश्तों में चोट आ रही है। इसलिए इन रिश्तों की कोमलता को बचाते हुए शब्दों की रक्षा करना हर लेखक का फर्ज है। इसके बिना भटकते जंगलों में शब्द गुम हो जाएंगे और लेखक भी।

दिहि :- शब्द जब शून्यता में डूब जाए तो अंधेरे से बाहर निकलते हुए कविता महज पीड़ा बन जाती है?

सुरेश सेन ः- इस सवाल का जवाब मैं इस तरह से देना चाहता हूं कि शब्द शून्यता में डूब ही नहीं सकता है। दुख में डूब सकता है। यह दुख कई बार महान रचना को भी जन्म देता है।

दिहि :- ऐसे ही अभिव्यक्ति की गांठों में मसीहा बनते कवियों की नई पांत को क्या कहेंगे?

सुरेश सेन :- आजकल बहुत से कवि अपनी ही धरती से खाद-पानी न लेकर महज दूसरे कवियों की कविता पढ़ कर ही कविता लिख रहे हैं। इन कवियों की कविता में अपनी धरती, अपने आसपास के माहौल के प्रति कोई आत्मीयता नहीं है। वे महज शब्दों का आडंबर खड़ा करते हैं, जिसका पाठक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है।

दिहि :- पहाड़ की कविता हिमाचल कितना समझ पाया है या सृजन की इस विधा ने अपनी दिशा को कैसे चित्रित किया है?

सुरेश सेन :- आजकल हिमाचल में बहुत से कवि कविता लिख रहे हैं,  जिनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हुई है। इनकी कविता में पहाड़ का दर्द व यहां के जन का दुख पूरी तरह से अभिव्यक्त हुआ है। हिमाचल में भी इनकी पहचान बनी है, जैसे कि आत्मा रंजन, अजय, पवन चौहान, यादवेंद्र शर्मा व चंद्ररेखा ढडवाल आदि।

दिहि :- विचारों और शब्दों की उलझन में साहित्य की नई दिशा पर पसरी आशाएं क्या किसी परिवर्तन को देख पाएंगी?

सुरेश सेन :- विचारों और शब्दों की उलझन में ही लेखक युवबोध पकड़ सकता है तथा लिखने में मौलिकता ला सकता है। भविष्य में कवियों को विचारों और शब्दों के मंथन पर ध्यान देना होगा। इसी प्रश्न से टकराकर नवलेखन के भविष्य की उम्मीद की जा सकती है।

दिहि :- कविता में नए प्रयोग की कोई सीमा देखते हैं या अविच्छिन्नता ही कविता है?

सुरेश सेन :- शुरू में अकविता या श्मशान कविता जैसे कई आंदोलन शुरू हुए। उनकी एक सीमा थी, उससे निकल कर आज की कविता नई ऊंचाइयों को छू रही है। मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन जैसे कवि आज की कविता की देन हैं।

दिहि ः- आपके लिए लेखन की तड़प भारतीय मूल्यों की विरासत है या खुद के भीतर झांकने की मर्यादा?

सुरेश सेन ः- हर लेखक का लेखन बचपन की स्मृतियों, समाज से अर्जित अनुभवों और अपने समकालीन तथा अग्रज कवियों के अध्ययन से प्रभावित रहता है। इसमें हमारे स्वभाव का भी काफी योगदान रहता है। जैसे शहर का कवि शहर के वातावरण पर ही कविता लिखता है और गांव का कवि ग्रामीण अनुभवों को ही उकेरता है। मैं भी ऐसा ही करता हूं।

दिहि : प्रकाशन और मंच की कविता के आयाम व संदर्भ बदलते माहौल में कवि का यथार्थ है कहां?

सुरेश सेन :- मंचीय कविता में न भाव की गहनता होती है और न ही कोई विजन। न रचना की दृष्टि, न समाज के प्रति जवाबदेही। उनका मकसद लोगों का मनोरंजन और

सिर्फ मनोरंजन ही होता है। प्रकाशन में आई कविता की अपने समाज के प्रति एक जवाबदेही होती है।

दिहि ः- कविता की रूह की तफतीश में आप खुद को कितना नजदीक और जिंदगी के हाशियों को कितना दूर पाते हैं।

सुरेश सेन :- कविता की रूह की तफतीश में मेरा प्रकृति तथा जन से गहरा रिश्ता बन गया है। मुझ में द्वंद्व का भाव पैदा हुआ जिससे अच्छे और बुरे को समझने का नजरिया विकसित हुआ। मैं यदि कवि न होता तो पेड़, नदी, पत्तियां, पत्थर मुझे मृत जीवों जैसे लगते। इनसानियत से गहरा रिश्ता न बनता। कविता में मेरी रूह की महक है। यह मेरी जिंदगी के हाशिए पर नहीं, मेरे जीवन के केंद्र में है।

दिहि :- कवि होने की बजाय कवि बनते मंच पर रखी कविता या अनुदान की श्रद्धा से दर्ज होती कविता को आप साहित्य के किस कोने पर देखते हैं।

सुरेश सेन ः- मंचीय कविता का लक्ष्य फूहड़ चुटकुलों को सुनाकर लोगों को हंसाना है। उधर प्रकाशन में आई कविता अपना कर्त्तव्य समझती है, वहीं गंभीर कविता का अपना एक सामाजिक उद्देश्य होता है। मंचीय कवियों का अध्ययन और बौद्धिक परंपरा से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं होता। मेरी दृष्टि में मंचीय कविता का कोई भविष्य नहीं है।

दिहि ः- क्या कविता काल की खोज में खोजी पत्रकारिता सरीखी है या समय के अनुबंध में खींची गई लकीर।

सुरेश सेन ः– जहां खोजी पत्रकारिता में महज घटनाओं का ब्योरा होता है, वहीं कविता में बिंब और प्रतीक का सहारा लेकर उसी घटना को

एक जीवंत रूप में पेश किया जाता है। मेरी

नजर में कवि का समय के सीने पर एक सशक्त हस्ताक्षर है तथा समाज और इतिहास की घटनाओं का आईना भी।

दिहि ः-क्या अभिव्यक्ति के सामाजिक दर्पण से बड़ा चित्रण संभव है और इसे साधने की छूट है।

सुरेश सेन ः- हां। अभिव्यक्ति के सामाजिक दर्पण से बड़ा चित्रण संभव है। जैसे निराला की महान कविता ‘राम की शक्ति पूजा’, मुक्तिबोध की ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ तथा त्रिलोचन की ‘चंपा’ काले-कालेअक्षर नहीं चिन्हती। ये अभिव्यक्ति की बड़ी कविताएं हैं। इन कविताओं में अपने समय के इतिहास का विशाल चित्रण संभव हुआ है।

-जसवीर सिंह, सुंदरनगर