विष्णु पुराण

सुरुचिः सत्यमाहेदं मंदभाग्योऽसि पुत्रक।

न हि पुण्यवतां वत्स सपत्नैरेवमुच्यत।।

नोद्वेगस्तात कर्त्तव्यः कृत यत् भवता पुरा।

तस्कोऽपहत्तु शक्नोति दातुं कश्चावृत त्वया।।

तत्वया नात्र कर्त्तव्यं दुख तद्वाक्यसम्भवम्।।

राजासर राजच्छत्र वराश्चवरवारणाः।

यस्य पुण्यानि तस्यै ते पत्वै तच्छाम्य पुत्रक।।

अन्यज मकृतै पुण्यै सुरच्यां सुरुचिर्नृपः।

भायोति प्रोच्यते चान्या मद्विधा पुण्यवर्जिता।।

पुण्योपचयसम्पन्न स्तस्यः पुत्रस्तथोत्तम।

मम पुत्रस्यथा जातः स्वल्पपुण्यो ध्रुवो भवान।।

तथापि दुखं न भवान कलुयर्हति पुत्रक।

यस्य यावत्स तेनैव स्वेन तुष्यति मानवः।।

सुनीति बोली, हे पुत्र, सुरुचि कहना यथार्थ है, तू मंद भाग्य है। इसीलिए उसने ऐसा कहा है, क्योंकि पुण्यवान के सामने ऐसा कहने का दुःसाहस कोई नहीं करता। परंतु तू उद्विग्न मत हों, पूर्व जन्म के कर्म का फल कोई नहीं मिटा सकता और तूने नहीं किया, उसे कोई दे नहीं सकता। इसलिए उसके वचनों पर दुखित नहीं होना चाहिए। हे पुत्र! पुण्यवान! राज्य सिंहासन, छतर और अच्छे-अच्छे वाहन गज और अश्व आदि की प्राप्ति हो सकती है। यह समझकर शांत हो। पूर्व जन्मों के पुण्य से ही राजा की प्रीति सुरुचि में है और पुण्यवान होने के कारण ही मैं कहने भर को राजा की पत्नी हूं। इसी प्रकार उसका पुत्र उत्तम भी अत्यंत पुण्यवान है और मुझसे उत्पन्न तू मेरे समान ही थोडे़ पुण्य का भागी है। फिर भी हे पुत्र तू दुखित मत हो, क्योंकि जिसे जो कुछ भी प्राप्त हो जाए उतनी पूंजी में उसे संतोष करना चाहिए।

यदि ते दुखमत्यर्थ सुरच्या वचनाभवत्।

तत्पुण्योपचये यत्न कुरु सर्वफलप्रदे।।

सुशीलो भव धर्मात्मा मैत्रः प्राणिहिते रतः।

निम्न यधापः प्रवणाः प्राक्षमायान्ति समपदः।।

अंब यत्वमिद प्रात्थ प्रशमाय बचो मम।

नंतददुर्वचमा भिन्ने हृदये मम त्तिष्ठिति।।

सोऽहं तथा यतिष्यामि यथा सर्वोतमम।

स्थनं प्रास्याम्याम्य शेषणां जगतामभिपूजितम्।।

सुरुचिर्दयिता राज्ञस्तस्या जातोऽस्मि नीदरात्।

प्रभाव पश्य मेऽम्ब त्वं वृद्धस्या प तावोदरे।।

उत्तमः स मम भ्राता यो गर्भेण धृतस्तया।

स राजासनमाप्तु पित्रा दत्तं तथास्तुतत्।।

नान्यदत्तमभीष्मामि स्थानमम्व स्वकर्मशा।

इच्छामि तदहं स्थानं यन्न प्राप पिता ममः।।

यदि सुरुचि के वचनों से तेरा मन खिन्न ही हो गया है। तो सब फलों के देने वाले पुण्य को संचित करने का उपाय कर तथा सब प्राणियों का हित साधक, सुशील, सर्व स्नेही और पुण्यात्मा बन, क्योंकि जैसे जल नीची भूमि में स्वयं ढलता हुआ जाता है, वैसे ही सत्पात्र पुरुषों के पास समस्त वैभव अपने आप ही आ पहुंचते हैं। धु्रव ने कहा, हे मास! मेरे चित्त शांति को लिए तुमने जो कुछ कहा है, वह उसके कठोर वचनों से बिंधे हुए मेरे हृदय में ठहर नहीं पाता। इसलिए अब मैं वही करूंगा, जिसके द्वारा सब लोकों में सम्मानित सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त हो सकूं। यद्यपि राजा की प्रेयसी सुरुचि अवश्य ही भाग्यशाली है और मैं उसके उदर से उत्पन्न नहीं हुआ हूं, फिर भी अपने गर्भ द्वारा प्रबुद्ध किए गए इस बालक के प्रभाव को देख लेना। फिर उत्तम को सुरुचि ने जन्म दिया, वह भी मेरा भाई ही तो है। पिता को दिया हुआ राजपद उसको मिले, क्योंकि मैं किसी दूसरे के द्वारा किए हुए पद की अभिलाषा नहीं करता, मैं तो अपने पुरुषार्थ से ही उस पद को पाना चाहता हूं, जिसे पिताजी भी न प्राप्त कर सके हैं।