श्रीविश्वकर्मा पुराण

संसार में जन्मी हुई प्रत्येक जीवात्मा कर्मविहीन न रह सके, इस कारण मनुष्य को कर्म तो करना ही चाहिए और जब तक अपने किए हुए अच्छे-बुरे कर्मों का अंत न आए, तब तक मनुष्य का मोक्ष भी न हो, तो वह जीवात्मा मोक्ष कब पावे, एक शंका वाली बात है…

सूतजी बोले, हे ऋषियो! इस घटमान में जीव स्वयं देह धारण करके आता है तथा इस प्रकार के अपने अच्छे-बुरे कर्मों तथा आचरणों से उत्पन्न हुए फलों का उपभोग करता है। फिर नए कर्म करता है और फिर वह किए हुए अधूरे फलों को भोगने के लिए पुनः जन्म लेता है। इस तरह प्रभु की माया में फंसा हुआ जीवात्मा बहुत बड़े चक्र में पड़ जाने से जैसे नदी की लहर में फंसा हुआ मनुष्य चाहे जितने प्रयत्न करे, तो भी उसमें से बाहर नहीं आ सकता। उसी प्रकार वह जीवात्मा इस माया के चक्कर में से नहीं निकल सकता। परंतु सत्य निष्ठा से जो जीवात्मा ईश्वर में अपने चित्त को लगाए और अच्छे-अच्छे कर्म करे तथा अहंकार रहित बनकर सब कर्म ईश्वर को समर्पण करे, तो उसके किए हुए कर्मों का कुछ भी फल भोगने को नहीं रहता और उससे ईश्वर की निष्काम भक्ति का फलस्वरूप योगियों को भी दुर्लभ है, उत्तम मोक्ष की गति को वह जीवात्मा प्राप्त करता है। परंतु जो जीवात्मा अहंकार के वश में कर्म में आसक्त रहता है, तो उससे जीवात्मा को अपने जीवनकाल के दरम्यान अपने कर्म फल भोगते हुए जो कुछ बाकी रहता है, उसे ही भोगने के लिए जीवात्मा को दूसरा जन्म लेना पड़ता है। अपने कर्मों के आधार से वह जीवात्मा दूसरी बार के जन्म में यहां बताए हुए किसी भी लोक में जन्म धारण करता है। हे ऋषियों! इन लोकों का वर्णन तथा जीवात्मा के कर्मों के आधार से उस लोक में होने वाली जीवात्मा की गति वगैरह मैंने तुमको बताई, अंत समय में अपने पुत्र को बुलाने के निमित्त से भी जिसने नारायण शब्द का अपने मुख से उच्चारण किया, अजामिल नाम के ब्राह्मण ने एक बार प्रभु का स्मरण किया और वह समस्त पापों से छूट गया। तब ऋषि- मुनियों को भी अलभ्य ऐसी उत्तम गति को पाया, इससे जो एक ही बार अनायास तथा अनजाने में किया सारे जीवनकाल के दरम्यान भक्ति में आसक्त रहते  मनष्य की उत्तम गति हो, इसमें क्या नई बात है। संसार में जन्मी हुई प्रत्येक जीवात्मा कर्मविहीन न रह सके, इस कारण मनुष्य को कर्म तो करना ही चाहिए और जब तक अपने किए हुए अच्छे-बुरे कर्मों का अंत न आए, तब तक मनुष्य का मोक्ष भी न हो, तो वह जीवात्मा मोक्ष कब पावे, एक शंका वाली बात है। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! मैं तुमको इस बात को बताता हूं, अपने पहले के संचित फल भोगने के लिए ही जीवात्मा कोई भी कर्माधीन देह को धारण करता है और उस देह में रहकर वह जीवात्मा अपने पूर्व के संचय किए हुए कर्म के फल का उपयोग करता है, इस समय देह के बंधन में जीव को उस देह के फर्ज का धर्मरूपी अनेक दूसरे कर्म भी करने पड़ते हैं। परंतु इस समय जीव कोई भी कर्म करने से पहले अच्छे सार का विवेक रखना चाहिए और अपने हाथ से कोई भी अयोग्य कर्म न हो, इसका ध्यान रखना चाहिए तथा खुद कोई कर्म करता है, ऐसी भावना कभी भी नहीं होनी चाहिए। संसार के धर्मों के कारण बंधन में रहा हुआ देह उसके धर्म का पालन करने को अमुक कर्म करता है तथा जीवात्मा को जब कर्मों के साथ कोई बंधन नहीं, अर्थात मैं कुछ भी करता नहीं, ऐसी प्रबल भावना से सब कर्म करना चाहिए।