श्री कृष्ण ने यमुना नदी में रची लीला

भगवान श्री कृष्ण मंगलमय चरित्र और उनकी लीलाएं इतनी मधुर और चित्त को आकर्षित करने वाली हैं कि उनका श्रवण एवं गान करने से हृदय प्रेमानंद से प्रफुल्लित हो उठता है। जब साक्षात भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीलाओं द्वारा सबको आनंदित करने के लिए अवतरित होते हैं, तो उनके अनंत सौंदर्य, माधुर्य, ऐश्वर्य एवं लालित्मय लीलाओं पर हर कोई रीझ उठता है। इन्हीं लीलाओं में से एक लीला उस समय की है जब कंस ने अपने दान विभाग के अध्यक्ष अक्रूर को श्रीकृष्ण को छल से मथुरा लाने भेजा था। यह उस समय की बात है जब भगवान की प्रेरणा से देवर्षि नारद कंस के पास पहुंचे और उन्होंने उनको बताया कि श्रीकृष्ण ही देवकी की आठवीं संतान है। ऐसा सुनते ही कंस क्रोध से आग बबूला हो गया। उसने श्रीकृष्ण को धनुष यज्ञ के बहाने मथुरा बुलवाने और अपने पहलवानों से उन्हें कुश्ती लड़ने के बहाने मरवाने की योजना बनाई। कंस ने अक्रूर को बुलाया और उन्हें कृष्ण को मारने की योजना बतलाई, साथ ही कहा कि अक्रूर तुम्हारे कहने पर वह यहां अवश्य आएगा, अतः तुम नंद आदि को धनुष यज्ञ का निमंत्रण देकर यहां बुला लाओ। अक्रूर जी ने कंस को बहुत समझाया और ऐसा गलत कार्य करने से रोकना चाहा, पर अंत में कंस की आज्ञा से वे मथुरा की ओर चल पड़े। अक्रूर जी भगवान कृष्ण के बहुत बड़े भक्त थे। आज तो श्याम सुंदर के दर्शन होगें ऐसा सोचते हुए अक्रूर जी आनंद से प्रफुल्लित हो शीघ्र ही मथुरा से व्रज में जा पहुंचे। भगवान को साक्षात अपने सामने पाकर वे उनके चरणों में गिर गए। भगवान के भक्त वात्सलय रूप का दर्शन कर प्रेम से उनका रोम-रोम पुलकित हो उठा। भगवान ने उन्हें प्रेम से उठाकर गले लगाया और उनको घर ले गए। भगवान के पूछने पर अक्रूर जी ने कंस के धनुष यज्ञ में निमंत्रण की बात उन्हें बतलाई। भगवान सब जानते हुए मुस्कराने लगे और कंस के उद्धार के लिए वह जाने के लिए शीघ्र तैयार हो अक्रूर जी के साथ मथुरा के लिए निकल पड़े। अब अक्रूर जी का रथ बड़ी तेजी से मथुरा की ओर जा रहा था। कुछ समय के बाद वे यमुना नदी के पास जा पहुंचे। संध्या -अर्चना के लिए अक्रूर जी यमुना के जल में स्नान करने उतरे, ज्यों ही उन्होंने डुबकी लगाई भगवान ने ऐसी लीला रची कि उन्हें जल के अंदर श्री कृष्ण दिखलाई दिए। पहले उन्हें आश्चर्य हुआ फिर उन्होंने सोचा कि हो सकता है कि यह मेरा भम्र हो, लेकिन इस बार उन्होंने जब दोबारा डुबकी लगाई तो उन्हें पहले से अधिक आश्चर्य हुआ। उन्हें शेष शैय्या पर विराजमान शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किए चतुर्भुज विष्णु के दर्शन हुए। भगवान की ऐसी झांकी को देख वह हर्ष उल्लास से गदगद हो उठे। अक्रूर जी ने उन्हें प्रणाम कर प्रेम से प्रभु की मधुर स्तुति की। थोड़ी ही देर में भगवान ने अपना वह रूप छुपा लिया। अक्रूर जी आश्चर्य चकित हो जल से बाहर निकले और पुनः रथ के पास पहुंचे। तब भगवान ने उनसे मुस्कराते हुए पूछा, चाचाजी क्या बात है, आप बड़े खोए-खोए से दिखलाई देते हैं, जल में कोई बात हुई क्या? अक्रूर जी क्या बतलाते, उनके मन की साध तो भगवान ने पूरी कर ही दी थी, उन्होंने मन ही मन में भगवान के चतुर्भुज रूप का ध्यान करते हुए शीघ्रता से रथ हांक दिया। भगवान तो अंतर्यामी हैं, वह अक्रूर जी के मन की बात भलीभांति जानते थे।