आत्म पुराण

अब यह आत्मा असंग क्यों है? यह सुनो! हे जनक इस लोक में जो पदार्थ संगवान होते हैं, उनमें संग के कारण अन्य पदार्थों के गुण-दोष भी आ जाते हैं। जैसे जल स्वभाव से ही शीतल है, पर अग्नि के संग से उष्णता आ जाती है। वायु जो स्वभाव से न ठंडी है न गर्म, वह भी अग्नि के कारण गर्म हो जाती है, और जल के संग से शीतल जान पड़ती है, पर जो पदार्थ असंग होते हैं, उन पर ऐसा प्रभाव नहीं पड़ता। जैसे असंग आकाम में मेघ, विद्युत आदि कारणों से कोई विकार होता दिखाई नहीं देता। जो पदार्थ मूर्तिमान और परिछिन्न होते हैं, वे ही संगवान होते हैं। पर यह आत्मा न तो मूर्तिमान है न परिच्छिन्न है, इसलिए इसका किसी पदार्थ से संग नहीं होता। इससे यह आत्मा बंधन, परिणाम अथवा विनाश को प्राप्त नहीं होती है।  हे जनक यही तुरीय आत्मा तुमको ज्ञानपूर्वक प्राप्त करनी चाहिए और यही तुम्हारा गंतव्य स्थान है। हे जनक ! जब जीवों का आत्मा रूप तथा भय से रहित जो अद्वितीय आनंदस्वरूप ब्रह्म है, उस अभय ब्रह्म को अपना आत्मा जानकर तुम अभय ब्रह्मा को प्राप्त हुए हो, इससे अब तुमको कोई भय नहीं रहेगा।

शंका-हे भगवन ! आत्मा का ज्ञान न होने पर भी जीवों को संसार रूप शूल से भय क्यों नहीं लगता।

समाधान- हे जनक! सब जीवों को द्वितीय पदार्थ के ज्ञान से भय होता है और जब तक द्वितीय पदार्थ की भावना किंचित भी शेष रहती है, तब तक अद्वितीय आत्मा का ज्ञान हो ही नहीं सकता। श्रुति में भी कहा है कि द्वितीया द्वैत भयं भवति। अर्थात द्वितीय पदार्थ के ज्ञान से जीवों को भय होता है। हे जनक! जिस पदार्थ के विषय में यह विचार होता है कि यह दुख का कारण है, उसी से उसे भय लगने लगता है, जैसे सिंह, सर्प आदि को जब प्राणी अपने से पृथक मान लेता है, तो उनसे भय लगने लगता है। इससे सिद्ध होता है कि द्वैतभाव के कारण जो प्रतिकूल ज्ञान पैदा होता है, वहीं जीवों के भय का कारण है। पर आनंद स्वरूप आत्मा में किसी जीव को प्रतिकूलता का ज्ञान नहीं होता, सब कोई उसे अनुकूल ही समझते हैं। हे जनक! ऐसा अद्वितीय ब्रह्म तुमसे भिन्न नहीं है, किंतु वह तेरा स्वरूप ही है और हे जनक! मैं तथा तू और संपूर्ण भूत प्राणी तथा स्थूल, सूक्ष्म शरीर आदि संसार को कोई पदार्थ ब्रह्म को अभय कहा है। अब दृष्टांत को सुनो। हे जनक! जैसे गंधर्व नगर आकाश से भिन्न नहीं है, वैसे ही संपूर्ण जगत भी आनंद स्वरूप आत्मा से भिन्न नहीं है। यह गंधर्व नगर वास्तव में नहीं है, किंतु माया के कारण जान पड़ता है। इसी प्रकार आनंद स्वरूप आत्मा में जगत की स्थिति है। वह भी वास्तव में कुछ नहीं है, किंतु माया के कारण ही जान पड़ता है।

शंका– हे भगवन! जो आनंद स्वरूप आत्मा में तीन काल में इस जगत का अस्तित्व नहीं है, तो लोगों को भिन्न-भिन्न रूपों में इस जगत की प्रतीती कैसे होती है।

समाधान- हे जनक! जैसे आकश में यद्यपि तीन काल में भी गंधर्व नगर नहीं होता पर भ्रांत पुरुषों को वह गंधर्व मगर स्थूल और सूक्ष्म रूप में खूब दिखाई पड़ता है। इसी प्रकार आनंद स्वरूप आत्मा में तीन काल में भी जगत नहीं पर अज्ञानियों का जगत बहुत स्पष्ट रूप में दिखाई देता है, जिसका कारण भ्रांति ही होती है। हे जनक! ऐसी अद्वितीय आत्मा का साक्षात्कार तुमको प्राप्त हुआ है, इससे तुम संसार रूप शूल से तनिक भी मत डरो।

जनक— आपका गुरु जो सूर्य भगवान है, वह सब जीवों का बाह्य प्राण है और सब जीवों के नेत्रों के सम्मुख उपस्थित अंधकार को दूर करने वाला भी वही है। ऐसे सूर्य भगवान के उपकार के समान कोई पदार्थ दिखाई नहीं पड़ता। तो भी देहधारी जीव सूर्य भगवान को एक दीपक अर्पण करते हैं। सो वह सूर्य भगवान उस दीपक से ही प्रसन्न हो जाता है।  हे भगवान! आप भी सूर्य भगवान के शिष्य हैं और शिष्यों के अंधकार को दूर करते हो। इसके लिए हम आपको क्या गुरु दक्षिणा दे सकते हैं। फिर भी हम आपके महान उपकार के उपलक्ष्य में अपना समस्त राज्य, धन, संपत्ति, कुटुंब-परिवार आदि सर्वस्व और स्वयं को भी गुरु दक्षिणा में अर्पण करते हैं।