जुर्म के खिलाफ

जुर्म के खिलाफ खड़ी जेल की दीवारें फिर हिलीं और कंडा से तीन कैदी फरार हो गए। इससे एक दिन पूर्व ही वनगढ़ उपकारागार में पुलिस कर्मी पर कैदी का हमला भी चिंता का विषय है। बेशक जेल सुधार कार्यक्रम के तहत कैदियों की जिंदगी संवारने की कई परियोजनाएं अभिनव दृष्टि से सफल हैं, फिर भी दीवारें लांघ कर भागते अपराधियों के प्रति सुरक्षा के प्रश्न खड़े होते हैं। यह इसलिए भी कि कल पुलिस का स्थापना दिवस है और पूरे विभाग को इस बहाने जनता के सामने अपना मजबूत पक्ष रखना है। औपचारिक तैयारियों और समारोह की परेड से हटकर ड्यूटी रूम में, चौकसी के वक्त या जांच-पड़ताल के दौरान ही कड़ी परीक्षा होती है। पुलिस ही कानून व्यवस्था है या यह सुशासन की नीतियों और समाधानों की पहरेदार है, इस पर विस्तृत विवेचन की जरूरत है। यह जिक्र इसलिए भी कि ऊना के कालेज में रखी ईवीएम मशीनों की सुरक्षा में तैनात पुलिस को जब यह नामंजूर हुआ कि परिसर में युवा खिलाडि़यों का जमघट लगे, तो इस पर भी आपत्ति हुई। ऐसे में तमाम आपत्तियों के खिलाफ एक बल के मनोबल को कायम रखने के लिए केवल औपचारिक ट्रेनिंग के पश्चात खाकी वर्दी में किसी कर्मी को डाल देने से शायद ही कुछ होगा, बल्कि कानून-व्यवस्था के पहरेदार को विशेष पुलिस की ताकत में सुसज्जित करना होगा। अपराधियों के सामने पुलिस की तैयारी व इनके बीच मानसिकता को निष्पक्ष व स्वतंत्र दिखाने के बजाय, उस पहरेदारी को देखना होगा जो केवल जोखिम है। इसी श्रेणी में पुलिस कर्मियों को चकमा देता अपराध या अपराधी अंततः हमारे ही समाज का हिस्सा है और यह भी कि नागरिक समाज अगर केवल दूर बैठकर कानून व्यवस्था के खोट ही निकालेगा तो जन भागीदारी आखिर है क्या। किसी ट्रैफिक लाइट के रेड सिग्नल को तोड़कर चुपचाप निकल जाना क्या वैसा ही नहीं है, जैसा पुलिस कस्टडी से भाग खड़े होना। हम यहां दो अपराधों को एक साथ खड़ा कर कोई समानता पैदा नहीं करना चाहते, बल्कि यह स्थापित करना चाहते हैं कि कानून व्यवस्था मात्र पहरे या कानून के डंडे से नहीं चलती, बल्कि इसके प्रति सामाजिक व्यवहार व सम्मान से ही सफल कामना की जा सकती है। अमूमन जिन परिस्थितियों में पुलिस बल को काम करना पड़ता है, उस दर्द का बंटवारा नहीं होता। दूसरी ओर अपनी व्यथा को लापरवाही में बदलकर पुलिस महकमा केवल हुक्म की तामील सरीखा ही बनता जा रहा है। जाहिर तौर पर अगर कंडा जेल से तीन कैदी फरार हुए, तो लापरवाही के सुराख ही दिखाई देंगे। हमारी अपेक्षा भी पुलिस से एक जैसी नहीं है। कभी हम चाहते हैं कि पुलिस एकदम सख्त और मानवीय व्यवहार से ऊपर अपनी संवेदना को कार्यबद्ध करे, लेकिन दूसरे ही पल यह उम्मीद भी करते हैं कि जब कहीं अपराध की छानबीन हो तो बेरहम न हो जाए। क्या एक प्रतिबद्ध पुलिस कर्मी के साहस को समाज हमेशा स्वतंत्र रहने देता है। यकीनन नहीं, क्योंकि जैसे ही कानून-व्यवस्था को सांचे में खड़ा करने की कोशिश होती है, राजनीतिक प्रभाव की चुगलखोरी से तबादला हो जाता है। अति व्यस्त सड़कों पर ट्रैफिक नियंत्रण में पुलिस कर्मी के सूजते फेफड़ों का जिक्र नहीं होता या मौसम की प्रतिकूलता में विभागीय चुस्ती के भीतर कांपते उनके परिवारों के निजी मसलों पर गौर नहीं होता है। बावजूद इसके कंडा जेल से कैदियों का भागना कई प्रश्न खड़े करता है। उस चौकसी पर सवाल उठाता है, जो जुर्म को फंदा डालने की सबसे बड़ी परीक्षा है। ऐसे में यह भी समझना होगा कि हिमाचल का जेल विभाग कानून के किस पहर की रखवाली कर रहा है। क्या वर्तमान जेल संरचना इस काबिल है कि अपराधियों के किसी भी षड्यंत्र को नाकामयाब कर दे। दो संतरियों को इस घटनाक्रम के खलनायक बना या सस्पेंड कर देने से यह राज ही रहेगा कि जेलें क्यों छिद्रों से भर गईं। हिमाचल की भौगोलिक परिस्थिति को देखते हुए तीन या चार जिलों के किसी केंद्रीय स्थल पर नए कारागारों का विकास करना होगा। वर्तमान युग में अपराध का संगठित आचरण या मानवाधिकारवादी नियमावलियों के आसरे चुनौतियां बढ़ रही हैं। ऐसे में हिमाचल की जेलों और जेल प्रशासन पर सिरे से विचार करते हुए कम से कम तीन बड़ी जेलों का निर्माण करना होगा।