त्रिपुरसुंदरी का प्रातः स्मरण जरूरी है

राजराजेश्वरी श्रीविद्या पंच प्रेतासन पर आसीन रहती हैं। ब्रह्मा-विष्णु, रुद्र-ईश्वर और सदाशिव आदि पंच महाप्रेत हैं। इनका रहस्य इस प्रकार है कि निर्विशेष ब्रह्म ही अपनी शक्ति-विलास के द्वारा ब्रह्मा-विष्णु इत्यादि पंच रूपों को प्राप्त होकर इच्छाशक्ति से सृष्टि, स्थिति, लय, निग्रह और अनुग्रह रूप कार्य करने में अक्षम हो जाते हैं, तब वे प्रेत कहे जाते हैं। उनमें ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर, ये चार पद हैं तथा सदाशिव फलक हैं…

स्वात्मशक्ति श्रीविद्या ही षोडशी, ललिता, कामेश्वरी, महात्रिपुरसुंदरी हैं, जो महाकामेश्वर के अंक में विराजमान हैं। उपाधिरहित शुद्ध स्वात्मा ही महाकामेश्वर हैं और सदानंदरूप उपाधिपूर्ण स्वात्मा ही परदेवता महात्रिपुरसुंदरी, ललिता अथवा षोडशी हैं। राजराजेश्वरी श्रीविद्या पंच प्रेतासन पर आसीन रहती हैं। ब्रह्मा-विष्णु, रुद्र-ईश्वर और सदाशिव आदि पंच महाप्रेत हैं। इनका रहस्य इस प्रकार है कि निर्विशेष ब्रह्म ही अपनी शक्ति-विलास के द्वारा ब्रह्मा-विष्णु इत्यादि पंच रूपों को प्राप्त होकर इच्छाशक्ति से सृष्टि, स्थिति, लय, निग्रह और अनुग्रह रूप कार्य करने में अक्षम हो जाते हैं, तब वे प्रेत कहे जाते हैं। उनमें ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर ये चार पद हैं और सदाशिव फलक हैं। श्रीविद्या, ललिता, कामेश्वरी, महात्रिपुरसुंदरी की चारों भुजाओं में पाश, अंकुश, इक्षुधनु और पंच पुष्पबाणों का ध्यान किया जाता है।

इच्छाशक्तिमयं पाशमंकुशं ज्ञान रूपिणम्।

क्रियाशक्तिमये बाणधनुषी दधदुज्ज्वलम्।।

अर्थात पाश इच्छाशक्ति है, अंकुश ज्ञानशक्ति है तथा इक्षुधनु व पंच बाण क्रियाशक्ति स्वरूप हैं।

आदौ लज्जां समुच्चार्य कएईल ततः परम्।

पुनश्चलाज्जामुच्चार्य हस कहल तु तत्परम्।।

ततो लज्जां पुनः प्रोच्य लज्जांतं सकलं ततः।

षोडशाक्षरमंत्रोअयं षोडश्याः समुद्राहृत।।

इयं तु सुंदरी विद्या देवानामपि दुर्लभा।

गोपनीय प्रयत्नेन सर्वसंपत्करी मता।।

ब्रह्मा, विष्णु, शिवात्मिका, सरस्वती, लक्ष्मी, गौरी रूपा, अशुद्ध मिश्र शुद्धोपासनात्मिका, समरसी भूत-शिव शक्त्यात्मक ब्रह्म स्वरूप का निर्विकल्प ज्ञान देने वाली सर्वतत्त्वात्मिका महात्रिपुरसुंदरी, यही इस मंत्र का भावार्थ है।

एषा आत्मशक्तिः एषा विश्वमोहिनी पाशांकुश धनुर्बाण धरा।

एषा श्री महाविद्या य एवं वेद स शोकं तरति स शोकं तरति।।

ये परमात्मा की शक्ति हैं। ये विश्वमोहिनी हैं। पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करने वाली हैं। ये श्री महाविद्या हैं। जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है।

नमस्ते अस्तु भगवति! मातरस्मान पाहि सर्वतः।।

हे भगवती, आपको नमस्कार है। माता, सब प्रकार से हमारी रक्षा करो। इससे अगले श्लोक में बताया गया है कि ये ही आठों वसु हैं। ये ही एकादश रुद्र हैं। ये ही द्वादश आदित्य हैं। ये ही सोमपान करने वाले एवं सोमपान न करने वाले विश्वेदेव हैं। ये ही यातुधान, असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्ध हैं। ये ही सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण हैं। ये ही ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र रूपिणी हैं। ये ही प्रजापति इंद्रमनु हैं और ये ही ग्रह, नक्षत्र, तारागण, कला-काष्ठादि काल-रूपिणी हैं। ऐसी देवी को मैं नित्य प्रणाम करता हूं। साधना के लिए यह जरूरी है कि भक्त अपने अराध्य देव या देवी के प्रति पूरी तरह समर्पित हो जाए। उसे अपनी नाव अपने अराध्य के हवाले कर देनी चाहिए। अराध्य देव अथवा देवी जरूर अपने भक्तों पर कृपा करते हैं। पूर्ण समर्पण ही वह साधन है जिसके माध्यम से भक्त अपने अराध्य का आशीर्वाद पा सकता है। भक्त को अपने अराध्य देव पर किसी तरह का संदेह नहीं करना चाहिए। उसे समर्पित होकर भक्ति करनी चाहिए।