मानवाधिकारों का हनन

रमेश सर्राफ धमोरा, झुंझुनू

प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को विश्व मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। इस महत्त्वपूर्ण दिवस की नींव विश्व युद्ध की विभीषिका से झुलस रहे लोगों के दर्द को समझ कर रखी गई थी। 69 वर्ष पहले पारित हुआ विश्व मानवाधिकार घोषणा पत्र एक मील का पत्थर है, जिसने समृद्धि, प्रतिष्ठा व शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के प्रति मानव की आकांक्षा प्रतिबिंबित की है। आज यही घोषणा पत्र संयुक्त राष्ट्र संघ का एक बुनियादी भाग है। हर शख्स जब इस दुनिया में जन्म लेता है, तो उसके साथ उसके कुछ अधिकार भी वजूद में आते हैं। कुछ अधिकार हमें परिवार देता है तो कुछ समाज। कुछ अधिकार हमारा मुल्क देता है, तो कुछ दुनिया। लेकिन आज भी दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं, जो या तो अपने अधिकारों से अनजान हैं या उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है। कभी जात के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर, कभी लिंग भेदभाव के जरिए तो कभी रंग भेद नीति को अपनाकर लोगों के इन अधिकारों को कुचला जा रहा है। हर तबके, हर शहर और दुनिया के कोने-कोने में किसी न किसी वजह से लोगों को बराबरी के हक से महरूम रखने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। भारतीय परिदृश्य में यह समझ पाना थोड़ा मुश्किल है कि क्या वाकई में मनुष्य के लिए चिन्हित किए गए मानवाधिकारों की सार्थकता है। यह कितना दुर्भाग्यपर्ू्ण है कि तमाम प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय सरकारी और गैर सरकारी मानवाधिकार संगठनों के बावजूद मानवाधिकारों का लगातार हनन दिखाई देता है। यह स्थिति चिंतनीय है।