सूचना से संवाद : मीडिया की कान खिंचाई

पुस्तक समीक्षा

* पुस्तक का नाम : सूचना से संवाद (पत्रकारिता का भारतीय परिप्रेक्ष्य)

* लेखक : डा. जयप्रकाश सिंह

* प्रकाशक : वैदिक पब्लिशर्ज, नई दिल्ली

* कुल पृष्ठ : 110

* मूल्य : रुपए 125/- (पेपर बैक), रुपए 240 (हार्ड कवर)

क्या भारतीय मीडिया जनमानस तक सही परिप्रेक्ष्य में सूचनाएं पहुंचा रहा है, या ध्यान विदेशी सोच का चश्मा चढ़ाकर डिजायनर खबरें परोसने पर ही ज्यादा है? इस ज्वलंत प्रश्न का उत्तर महज हां या नहीं तक सीमित नहीं, क्योंकि सवाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा में सीमित न होकर भारतीय संस्कृति और अस्मिता के भविष्य से नत्थी है। विषय निःसंदेह गंभीर है और इसी विचार को विस्तार देती है डा. जयप्रकाश सिंह की नई पुस्तक ‘सूचना से संवाद (पत्रकारिता का भारतीय परिप्रेक्ष्य)’। डा. सिंह के अनुसार आधुनिक समय में भारतीय मीडिया के फैलाव के साथ ही उपलब्ध सूचनाओं की संख्या निरंतर बढ़ रही है, परंतु दुर्भाग्यवश ये सूचनाएं समाज से संवाद स्थापित करने में बहुधा असफल हैं। पुस्तक का उज्ज्वल पक्ष यह है कि यह कोई आलोचना ग्रंथ न होकर तथ्यात्मक विश्लेषण है। कुल 110 पृष्ठों में 27 लेखों के माध्यम से लेखक यह सिद्ध करने में सफल रहे हैं कि मीडिया के बड़े भाग को गहन चिंतन की आवश्यकता है। यह जरूरी है कि संवादहीनता की इस स्थिति को दूर करने के लिए संभावनाओं का सृजन किया जाए। पुस्तक में समाहित हर लेख एक विषय पर आधारित होकर विस्तार में जाता है। यह विस्तार भारतीय जनमानस और उसकी आस्था, आकांक्षा की विवेचना करता है। इसके बाद बारी आती है इन भावनाओं पर मीडिया के दृष्टिकोण की, जो समाज के साथ संवादहीनता की स्थिति स्पष्ट करता है। डा. सिंह बताते हैं कि किस प्रकार भारत का अंग्रेजी मीडिया होली में रंगों की मस्ती को गंवारू ठहराकर वैलेंटाइंस-डे और न्यू ईयर ईव को तर्कसंगत बताने की कोशिश करता है। किस प्रकार मीडिया से जुड़े हमारे कुछ बुद्धिजीवी विदेशी बयानों को आधार बनाकर भारत को कोसने का मौका आतुरता से लपकते हैं, यह वर्णन भी रोचक है। पुस्तक में टीआरपी की होड़ पर भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खूब खिंचाई की गई है, विशेष तौर पर इसलिए कि टीआरपी के आंकड़े हरगिज विश्वसनीय नहीं होते। इसी प्रकार हिंदू आतंकवाद का अस्तित्व साबित करने के लिए कुछ वर्ष पूर्व भारतीय मीडिया द्वारा दिखाई गई आतुरता भी लेखक की पैनी नजर से बच नहीं पाई है। सूचना के विस्तार में उपेक्षित होती हिंदी और इस कारण पनपने वाली हीनता की भावना पर भी पुस्तक की मुखरता विशेष है। इस कारण महिला सशक्तिकरण को लगने वाले आघात का विश्लेषण प्रभावित करता है। विषय वस्तु से हटकर एक और विशेषता जो ध्यान खींचती है, वह है लेखक की निर्भीकता। मुद्दों का विश्लेषण करते समय न वह बड़े पत्रकारों को बख्शते हैं, न ही नामचीन मीडिया ग्रुप्स को। यह बेबाकी उनके तर्क को विश्वसनीयता का पुट देती है, जो पाठक को प्रभावित करती है। विचार व तर्क आधारित पुस्तक की भाषा गंभीर है, इसलिए पाठक को ध्यान केंद्रित रखने की आवश्यकता रहेगी और शायद यही लेखक डा. जयप्रकाश सिंह का मंतव्य भी है। पेपर बैक पुस्तक का मूल्य 125 रुपए, जबकि हार्ड कवर का दाम 240 रुपए है, जो विषय वस्तु व प्रिटिंग को ध्यान में रखते हुए उचित प्रतीत होता है। कुल मिलाकर ‘सूचना से संवाद (पत्रकारिता का भारतीय परिप्रेक्ष्य)’ एक संग्रहणीय कृति है। … मात्र मीडिया  जगत से जुड़े लोगों के लिए ही नहीं, जागरूक नागरिकों के लिए भी।

– अनिल अग्निहोत्री