अब महाभारत का मिथक

महाभारत हजारों साल पहले समाप्त हो चुकी है। आज न तो पांडव और न ही कौरव बचे हैं, फिर भी जनता को ‘पांचाली’ (द्रोपदी) बनाने की कोशिश जारी है। ऐसा वक्तव्य प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा में दिया था और हमारा विश्लेषण भी यही है। कौरव-पांडव की नई महाभारत की रचना कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने की है। मुख्यमंत्री ने कांग्रेस को पांडव और भाजपा को कौरव करार दिया है। सिद्धारमैया चुनाव को ही युद्ध मानते हैं और मौजूदा कन्नड़ युद्ध में ‘पांडव-कौरव’ दो प्रमुख दलों को ही माना है। चुनाव एक वैचारिक और मुद्दों की प्रतिद्वंद्विता तो हो सकता है, लेकिन ऐसा ‘संहारक कुरुक्षेत्र’ नहीं हो सकता, जहां महाभारत की जंग हुई थी। महाभारत धर्म-अधर्म का भी ‘महायुद्ध’ था। आज के युद्ध में कौन धर्म का पक्षधर है और कौन अधर्मी है, इसे न तो सिद्धारमैया बता पाए हैं और न ही कांग्रेस पार्टी। अलबत्ता जो दलीलें दी जा रही हैं, उनके मुताबिक कांग्रेस खुद को ‘निरीह पांडव’ मान रही है। यदि मिथकों के आधार पर भी विश्लेषण किया जाए, तो कांग्रेस और सिद्धारमैया को साबित करना पड़ेगा कि ‘भगवा कौरवों’ ने किसका राजपाट छीना है? किसके पांच गांव भी कब्जाए हैं? किस ‘पांचाली’ के चीरहरण की कोशिश की है? और सबसे अहम सवाल भगवान कृष्ण का है। ‘सियासी पांडव’ बताएं कि उनके पाले में ‘श्रीकृष्ण’ कौन हैं? और ‘गांडीवधारी’ अर्जुन कौन हैं? दरअसल आजकल कांग्रेस और खासकर उसके नए अध्यक्ष राहुल गांधी को ‘हिंदुत्व का बुखार’ चढ़ा है, नतीजतन अमेठी में राहुल गांधी को ‘राम का अवतार’ दिखाया गया है और वह ‘मोदीनुमा रावण’ का वध कर रहे हैं। एक अन्य पोस्टर में राहुल को ‘भगवान कृष्ण’ के रूप में चित्रित किया गया है। सवाल है कि क्या कर्नाटक में चुनाव हिंदू धर्म के आधार पर लड़ा जाएगा? महाभारत का मिथकीय स्वरूप और और राम-कृष्ण के ईश्वरीय चेहरों पर कब तक चुनाव लड़े जाते रहेंगे? दरअसल गुजरात के बाद कांग्रेस और राहुल गांधी को खुशफहमी हो गई है कि वे भाजपा की तुलना में ‘बड़े हिंदू’ साबित हो सकते हैं। लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि इस महाभारत से जनता को क्या हासिल होगा, जो ‘कौरव-पांडव’ बनाने में सक्षम है। उसे यह भी जानकारी है कि नई महाभारत में ‘धर्म और अधर्म’ का पक्षधर कौन है? चूंकि चुनावों का सीधा संबंध जनता के मुद्दों से होना चाहिए, लिहाजा कर्नाटक के मुद्दे पर कांग्रेस कठघरे में खड़ी है। राहुल गांधी और सिद्धारमैया कन्नड़ समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार की बात क्यों नहीं करते? खासकर मुख्यमंत्री कानून-व्यवस्था पर चिंतित क्यों नहीं हैं, क्योंकि पुलिस अफसर ही आत्महत्याएं कर रहे हैं। एक खास जमात के विचाराधीन, लेकिन खतरनाक, कैदी जेलों से क्यों छोड़े जा रहे हैं? कर्नाटक को लिंगायत और वोक्कालिंगा जातियों और धर्म में बांट कर क्यों देखा जा रहा है? मुख्यमंत्री ने दलितों को ही दो लाख के बजाय चार लाख रुपए का कर्ज देना क्यों तय किया है? मुफ्त पढ़ाई और लैपटॉप की व्यवस्था सभी छात्रों के लिए क्यों नहीं है? मुख्यमंत्री सिद्धारमैया एक और ‘हिंदू आतंकवाद’ की बात करते हैं, तो दूसरी ओर ‘पांडव’ बनकर जनता की सहानुभूति बटोरना चाहते हैं। यह कैसा विरोधाभास है? यह तो जनता तय करेगी कि कौन ‘पांडव’ है और कौन ‘कौरव’ है। दरअसल मौजूदा राजनीति के केंद्र में ‘हिंदुत्व’ है। अब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी ‘ब्राह्मण सम्मेलन’ कर  4000 पुरोहितों को ‘गीता’ दान कर रही हैं, तो दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’ ने हिंदुओं को मुफ्त में तीर्थयात्रा कराने की घोषणा की है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव भी खुद को ‘हिंदू’ घोषित करने में लगे हैं। यानी 2014 से पहले जिन दलों के जरिए धर्मनिरपेक्षता की आवाजें सुनाई देती थीं, आज वे भी ‘हिंदू-हिंदू’ कर रहे हैं। ‘सांप्रदायिकता’ बनाम ‘धर्मनिरपेक्षता’  की राजनीतिक लड़ाई खामोश है। लिहाजा कांग्रेस भी उसी मुद्रा में है। लेकिन क्या अब चुनाव इसी तरह धार्मिक मुद्दों पर लड़े जाएंगे? भारत का जो स्वरूप और सोच धर्मनिरपेक्ष है, उसका क्या होगा?